Man Ki chah...

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Note

यह कहानी व्यक्तिगत अनुभवों और भावनाओं पर आधारित है, जिसमें कुछ परिपक्व और संवेदनशील विषय शामिल हैं। कृपया ध्यान दें कि यह किसी भी प्रकार की नकारात्मकता को बढ़ावा नहीं देती, बल्कि आत्म-प्रतिबिंब और संघर्षों को दर्शाती है। अगर आप ऐसे विषयों से असहज महसूस करते हैं, तो कृपया इस कहानी को न पढ़ें।

आज की दुनिया का सिलसिला : ऐसा लगता है कि अब इस दुनिया में सिर्फ दो ही चीजों से हुकूमत चल सकती है। पहला धन की चाहा... दूसरा तन की चाह ...

इन्हीं दोनों के चलते इंसान का मन भी काबू हो चुका है
धन (पैसा) कागज का बना हुआ वह इक्का है जिससे सभी चीजों क़ो खरीदा जा सकता है, जिसकी कीमत कुछ भी हो ...

"बंगला गाड़ी पहचान इज्जत रुतवा रिश्तेदार यहां तक कि ईमान वह हर एक चीज ...

तन (हुस्न ) भी अब एक ऐसी चीज हो चुकी है। ऐसा नशा बन चुका है, जो इंसान से कुछ भी करवा सकता है। यह चाहे तो उसके धन को भी ले सकता है या उसके मन को भी ...

अब आप सब की बात क्या कहें, जब ये मेरे मन को भी ले लिया है। तो चलिए...आपके मन के साथ अपने मन की कहानी शुरुआत करते हैं।

मैं शुरुआत करना चाहूंगा अपने घर परिवार के लोगो से। तो मेरा घर एक ऐसा क़स्बा मे है जहाँ पे लोगो के कम चहल पहल होते है क्योकि आस पास ना उतने घर है , ना ही कोई बज़ार है। बाजार है भी तो घरों से आगे 500m की दूरी की पे है।

ऐसे मे मुझे बहुत सुनसान फील होता है। जो की हमेशा से है यहाँ की सड़के जितनी खाली दिखती है, हरियाली उतने ही भरे रहते है। यहाँ पे आंनद भरी मौसम का आना और ताप्ती गर्मीयों मे जाना होता है। और क्या कहे चलती हवाओ को जो गिरते पत्तों के साथ फिर से वही ख़ामोशी दे जाती है

जिस ख़ामोशी मे मैं बैठा यही सोचता हु। की काश यहाँ पे दो चार घर और हो जाते तो कितना अच्छा होता। लोगो का चहल पहल रहता जिसमे मैं खुद को उतने शान्ति अकेलेपन मे महसूस नहीं करता।

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