Untitled Part 1

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यह उन दिनों की बात है जब मैं और मेरी दोस्त एक दूसरे की छत पर तितलियों की तरह फुदकते रहते थे। कभी मैं उसके घर, कभी वह मेरे घर, मुंडेर पर टाँगे लटकाये घंटों इधर उधर की बतियाते थे। शाम होते ही हम दोनों में से कोई एक दूसरे के घर पहुँचता और आवाज़ें लगाना शुरू। कितनी सुहानी और मजेदार बातें हुआ करती थी तब।

"सुना, वो जो निम्मी है न, उसे देखा था कल मैंने, गली के बाहर चाट वाले की दुकान पर प्रमोद से गपियाते।" मेरी दोस्त नीतू धीरे से मेरे कान में बोलती और फिर हमारी राम कहानी शुरू हो जाती।

निम्मी और प्रमोद की पूरी बखिया उधेड़ते और एक दूसरे को कसम भी देते की येह बातें किसी और को नहीं बताना। अरे हाँ, परोस के घर में एक नया किरायेदार आया था उन दिनों। बड़ी बड़ी आँखे, लम्बा सा कद, हलकी मूछें और कितनी खूबसूरत आवाज़ थी उसकी। शायद कहीं नौकरी करता था वह। हर रोज़ शाम ५ बजते ही उसकी मोटरसाइकिल की आवाज़ सुन खिड़कियों से झांकती और फिर जल्दी से नीतू के घर जाकर उसको आवाज़ लगाती। फिर दोनों मेरी छत से उसकी बालकनी में चुप चुप के निहारते। एक दूसरे को कोहनी मारते और मुँह छुपा छुपाकर हसते भी जाते।

कितनी कोशिश की थी उस किरायेदार से बात करने की।लेकिन कुछ तो लाज के मारे और कुछ की कही कोई देख न ले, बस मन मसोस के रह जाते। खैर, बाद में पता चला, उसकी पहले से एक महिला मित्र थी और जल्दी ही वो उससे शादी भी करने वाला था। धरे रह गए हमारे सारे सपने। अब पछताने से क्या फायदा जब चिड़िया चुग गयी खेत।

तो मैं और नीतू जल्दी ही उस सदमे से बाहर आ गए। आते भी क्यों न, शर्मा चची की बेटी की शादी होने वाली थी। गुड़िया दी यूं तो बहुत अकरुं थी और आज कल तो उसके पैर वैसे भी जमीं पर नहीं पड़ते थे। जब देखो, गर्दन तनी। होती भी क्यों न, उसका दूल्हा सॉफ्टवेयर इंजीनियर था और विदेश रहता था। पूरी गली में धूम थी उस शादी की। रोज़ नए कपड़े आते नए नए फैशन के, खूब जारी, गोटे , पट्टे का काम किया हुआ। हर दूसरे दिन गुड़िया दी की माँ पहुंच जाती हमारे घर आवाज़ लगाते।

" अरे पिन्नी की अम्मा, कहाँ हो? आओ ना जल्दी, देखो आज कितनी सूंदर साडी लेकर आयी हूँ चांदनी चौक से। कितना ढूंढा तब जाकर मिली। कसम से बहुत थक गयी हूँ। आ भी जाओ, जल्दी दिखती हूँ, देखकर बताओ गुड़िया की सास पर कैसी लगेगी? और मेरी माँ, सब काम छोड़ कर दौड़ पड़ती थी शर्मा चची के घर। फिर वापस घर लौटने पैर उन्ही साडी की चर्चा शुरू हो जाती थी दादी से।

"पता है अम्मा, इस बार शर्माईन पता नहीं कैसी साडी लेकर आयी है, इतना चटक रंग, अब कौन पहनता है इतना चटक रंग और वो भी गुड़िया की सास! देखा नहीं था कैसी नाकचरी है वो। हंगामा कर देगी ऐसी साडी देखकर बता रही हूँ मैं। लेकिन शर्माईन को कैसे बोलूं। जाने दो अम्मा, वैसे भी आजकल बहुत इतरा रही है।अभी इतना हवा मैं उड़ेगी तो गिरेगी भी धाम से। क्यों अम्मा, सही बोला न मैंने।"

बेचारी दादी, अब मेरी अम्मा के सामने वह क्या बोलेगी। बस अपना सर हिला देती और प्यार से बोलती, "हाँ रे बहुरिअ, सही बोलती हो। अब कौन इतना चमकीला पहनता है। जाने दो, जब गुड़िया की सास नखरे करेगी तो अपने आप सारा घमड़ उड़ जायेगा। बस तुम मत बोलना कुछ भी। अभी कल अपनी पिन्नी की भी तोह शादी करनी है, एहि लोग बाद में काम आएंगे । अब इस प्रदेश में कौन अपना बैठा है इन् पड़ोसियों के सिवाए?"

बस इतना सुनना होता और मैं बिफर जाती।

"क्या दादी, हर वक़्त सिर्फ एक ही बात? तुम्हारा बस चलता तो मुझे १० साल मैं ही बियाह देती। इतना जल्दी है हमको भागने का क्या। अभी तोह मुझे बहुत पढ़ना है, देखना मैं तो जॉब करुँगी और अपना दूल्हा खुद ढूंढूगी। तुम बस देखती रहना।"

फिर पता नहीं कहा से एक धौल लगता पीठ पैर जोर से और अम्मा के चीखने की आवाज़ आती।


"जबान देखो अम्मा इसकी, कैसी कैची सी चलती है। मैं कहे देती हूँ अम्मा, ये इसके बाबा का लाड प्यार है जो इसको बिगड़ रहा है। आप भी अम्मा बस देखो, कुछ बोलो नहीं पाने बेटे को। अरे पराये घर जाना है, कुछ ुचा निचा करेगी तोह दुनिया मुझे ही दोष देगी। बोलेगी, इसकी अम्मा ने इसको ठीक से नहीं संभाला। कोई तुम्हारे बेटे को दोष नहीं देगा। घोड़े सी हो गयी है लेकिन अकल देखो।"

दादी बेचारी सिटपिटा जाती। अब अम्मा से बोलने का फायदा नहीं और मैं तो वैसे भी नहीं सुनती, बस भुनभुनाकर रह जाती दादी।

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