प्रेम

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एक कली खिली थी बगिया में ,
एक भँवरा उस पर मरता था,
जाने कितने थे फूल वहाँ ,
पर वो पास उसी के फिरता था

उस बगिया के कुछ फूलों ने
उस से इसका कारण पूछा ?
भँवरे ने शरमा के ये कहा कि -
अब लगता नहीं कोई और अच्छा

उस कली में क्या है खास कहो?
वो क्या है जो हमारे पास न हो ?
रूप ,महक ,रस या यौवन
वो सब तो है जो लुभाये मन

फिर भी पास उसी के फिरते हो ,
हम को तो देखा भी न करते हो

जब मन को कोई भाता है
पर क्यों ? ये न समझ में आता है
तब ही समझो कि प्यार हुआ
वरना तो बस व्यापार हुआ

भँवरे के ऐसे प्यार को पा
कली का हृदय कुछ और खिला
भँवरे को लिया आगोश में ऐसे
जैसे सूर्य साँझ से मिला

कुदरत का नियम अटल होता
रोके जो ,न ऐसा कोई सबल होता
साँझ ढले जब अंधेरा हुआ
फूलों ने खुद को समेट लिया

भँवरा अपनी मस्ती में
अब भी था वहीं कली ही में
जब पंख मिले तो घबराया
सोचा कि अन्त निकट आया

भँवरा बहुत सबल होता
भेदे काठ को इतना बल होता
जब काठ की ही नहीं कोई औकात
तो नन्हीं कली की तो क्या है बिसात?

पर अपने प्राणों की खातिर क्या प्राण वो कली के हरे ?
या अपने प्रिय की बाहों में खुशी खुशी वो मरे

जब प्रेम का सूर्य उदित होता
तो नियम नहीं कोई ढोता
जब प्रेम का प्रकाश चहु ओर हुआ
तो रात्री में ही भोर हुआ

पंख पसारे अपने कली ने
भँवरे को जीवनदान दिया
अपने प्रिय की जान बचा के
उसने खुद पर ही एहसान किया


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