ये कैसा इश्क़ तुम्हारा है ?

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ये कैसा इश्क़ तुम्हारा है जो,
अखबारों सा बदलता है ?
वही एक जज़्बात कैसे
नए चेहरों में ढलता है?

हर बार वही दोहराने पर
क्या लफ्जों की कशिश नहीं जाती?
रोज़ नए प्यार के दावों पर
क्या शर्म तुम्हें नहीं आती?

तुम्हारा दिल सराय सा
हर रात मुसाफ़िर बदलता है,
रोज़ ही किसी नए चेहरे को
दिल तुम्हारा मचलता है.....

जिन एहसासों को प्यार समझ तुम,
दिल बहलाते रहते हो....
वो कुछ पल की दिलकशी से
ज़्यादा नहीं ठहरता है

जब पाक इश्क की बारिश में
दिल तुम्हारा भीगेगा
चाहे कितने आएँ जाएँ पर
चेहरा वो ही दीखेगा

जब जिस्मानी बन्धन को तोड़,
रूहें आपस में बतियाएंगी
तब इश्क़ की सारी बातें तुम्हें ,
खुद ब खुद समझ आजाएंगी

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