मैं क्यों बदलूं, क्यों बदलूं मैं,
कोशिशें शुरू होती है तब से, जब से मुझे महसूस करते हैं,
तब ना जाने क्यों उम्मीद करते हैं,
लड़की हूँ तो, लड़का बन जाऊंगा
और मैं हर पल बस यही सोचे जाऊं,
मैं क्यों बदलूं, क्यों बदलूं मैं?फिर जिंदगी बढ़ती है आगे,
और मैं उनसे, जो उनके मुझसे ज्यादा करीब है,
तो फिर एक बार उनकी यह उम्मीद है,
कि पीछे हट जाऊं, यह जगह दे जाऊं मैं,
और मैं सिर्फ यह कहती रह जाऊं,
मैं क्यों बदलूं , क्यों बदलूं मैं?फिर जब समझती हूँ,
समाज में रहने के तरीके को,अपनाती हू उसे दिल से,
माना मेरे भले के लिए,पर कुछ अंजानो के कारण,
एक बार फिर वो कह जाते, बदलने उस तरीके को,
और मैं बस ये पूछतीं रह जाऊँ,
मैं क्यों बदलूं, क्यों बदलूं मैं?फिर जब बड़े-बड़े फैसलों की बारी आई,
तो फिर एक बार मैंने अपनी समझदारी दिखाई,
सिर्फ़ वो ही नहीं सब उसे ठीक मानते फिर भी ना जाने क्यों,
उस पर चलने से घबराते और मुझे उसे बदलने को कहते,
और मैं सिर्फ यही सवाल करती रह जाऊँ,
मैं क्यों बदलूं, क्यों बदलूं मैं?इन बातों में जो बुलंद आवाज थी,
उसने उन्हें बता दिया कि अब ना पिछे हटूँगी मैं,
उनकी हर गलत बात पर बड़े से बड़ा सवाल करूंगी मैं,
जरूरत पड़ी तो अपने अपनों से भी कहूंगी मैं,
मैं क्यों बदलूं, क्यों बदलूं मैं?
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