दृश्य 4

90 2 0
                                    

शाम के 6 बजे घर में चहल पहल सी हो रही थी हर कोई अपने कामों को जल्दी जल्दी ख़त्म कर देना चाहता था । माँ बार बार राधिका को पुकार रही थी ।
रमा -- राधिका बेटा तू जल्दी से तैयार हो जा सौरभ की माँ और वो कभी भी आते होंगे । पहली बार अच्छा प्रभाव पड़ना चाहिए ।
राधिका --(अनमने मन से ) हो रही हूँ माँ ( राधिका उदास सी अपने सपनोँ को टूटते हुए देखाती है पर माँ बाप की ख़ुशी के आगे सब कम )
विद्या चंद्र --रमा बाहर आओ सौरभ जी और उनकी माता जी आई हैं ।
रमा --जल्दी हाथ पौछती हुई बाहर आती है । नमस्कार बहन जी , नमस्ते बेटा कैसे हैं आप लोग ? घर ढूंढने में कोई तक़लीफ़ तो नहीं हुई न
शीला --नमस्ते बहन जी नहीं घर ढूंढने में तो कोई तक़लीफ़ नहीं हुई पर कोई लेने आ जाता तो अच्छा हो जाता ।
सौरभ --नहीं नहीं हम आराम से पहुँच गए ।
विद्याचंद्र -- आप लोग खड़े क्यों हैं । बैठिए न और हल्के फुल्के माहौल में सब बैठ जाते हैं ।
शीला -- घर तो आपने ठीक ठाक बना लिया है क्लर्क की नौकरी में ल
विधा चंद्र --बस अपने परिवार के सर छुपाने लायक । और बेटा तुम क्या करते हो कुछ अपने बारे में बताओ ।
सौरभ -- बहुत शालीनता से कहता है मैं एक प्राइवेट कंपनी में हूँ और अपने परिवार के लायक कमा लेता हूँ । मेरी दो बहने जिनकी शादी हो चुकी है । घर में मैं और माँ बस दो जने हैं ।
विद्या चंद्र -- यह तो बहुत अच्छी बात है धीरे धीरे तरक्की कर ही लोगे बस आत्म संतोष होना चाहिए ।
शीला --भाई साहब अब बेटी को बुला दीजिए मैं तो देखने को बेताब हूँ
विद्या चन्द्र --रमा राधिका को ले आओ भई ।
रमा -- जी आती है ( रमा और राधिका का प्रवेश राधिका सीधी साधी नैन नक्श की माध्यम ऊंचाई वाली लेकिन प्यारी सी रमा के साथ अंदर आती है ) बेटा यह शीला जी सौरभ की माता जी
राधिका -- ( अदब से झुक कर पैर छूती है )
शीला -- जीती रहो दूधो नहाओ पूतो फलो और ससुराल वालो की खूब सेवा करो । भई हम तो यही आशीर्वाद देंगे ।
रमा -- जी आपका आशीर्वाद सदैव बना रहे बच्चों पर ।
और सौरभ की तरफ इशारा कर के यह हैं सौरभ जी
राधिका --हलकी नज़र सौरभ की तरफ डालते हुए नमस्ते करती है ।
सौरभ -- नमस्ते का जबाब जरा मुस्करा कर देता है ।
सूत्रधार ----और शुरू होता है दो परिवारों को जानने का प्रोग्राम आखिर राधिका शीला को पसंद आ जाती है और छोटे छोटे रिवाजो के बाद विवाह का दिन भी नज़दीक आ जाता है पर राधिका जो जीवन की उंचाइओ को छूना चाहती थी आज अपने सपनो को तहखाने में बंद कर चाबी छुपा देती है और निकल पड़ती है एक समझदार बेटी से एक सुशिल बहु बनाने के सफ़र में ।

सूत्रधार ....आँख में आँसू लिए बोली बेटी बाबुल से .....
रे बाबुल बड़े प्यार से सींचा तूने मोहे
आज काहे गैरो के हवाले कर दिया
खता थी मेरी तो सजा दे देते .......
तुमने ती खुद से ही जुदा कर दिया
जो आगँन महकता था मुझसे काहे
तूने उस आँगन से विदा मोहे कर दिया ।

जिंदगी कैसी है पहेली (नाटक )जहाँ कहानियाँ रहती हैं। अभी खोजें