राधा के कृष्ण

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वसंत की एक साँझ में जब शशि कि शीतलता रवि के धुंधले प्रकाश से मिल रही थी, तब ही दूर बरसाने और वृंदावन को मिलाने वाले मार्ग में कदम के पेड़ पर झूला झूलते हुए एक युगल की धड़कनें थम रही थी।

"शाम हो गयी है राधे, घर नहीं जाना है?"

"मैं तो अपने घर पर ही हूँ कृष्ण, तुम किस घर के विषय में बात कर रहे हो?"

कुछ हँसकर वह बोला, "क्यों मेरे प्रेम ने वृषभान काका और कीर्ति मैया को भुलवा दिया क्या?"

"तुम्हारा प्रेम कहाँ कुछ भुलवाता है कृष्ण, बल्कि वह तो अन्नत सनातन सत्य का स्मरण कराता है क्यों?
उस वास्तविकता का भी जो ना ही याद आएं तो बेहतर है!"

"किस वास्तविकता की बात कर रही हो, राधे?"

"क्यों ब्रज से अन्तिम विदा जो लेने जा रहे हो।"

"मैं-मैं तुमसे इस विषय में वार्ता करने ही वाला था कि-"

"कुछ न कहो कृष्ण। वैसे भी अपने समुद्र से अन्नत भावों को कहाँ कुछ शब्दों में व्यक्त कर पाते तुम।"

कुछ हताशा जताकर वह बोला "किन्तु कितना भी टाल दूँ ,आखिर तुमसे विरह के विषय में वार्ता करने का समय आ ही गया!"

"टालना क्यों हैं प्रिये?
तुम्हारा मथुरा जाना ही तुम्हारी नियति है,और इस सत्य को तो नारायण भी नहीं बदल सकते ,क्यों?
और फिर सत्य को स्वीकारना तो स्वयं तुमने ही मुझे सिखाया है, तो फिर आज तुम अपने सत्य को कैसे नकार सकते हो?"

"राधे, तुम्हारी बातों से तो यह विकट परिस्थिति भी इतनी सरल प्रतीत होती है कि मानो जैसे मैं व्यर्थ ही चिंतित था।"

"परिस्थितियाँ कहाँ विकट होती है कृष्ण? हमारे भाव और अपेक्षाएँ उन्हें विकट प्रतीत करवाते हैं।"

"अरे वाह! मेरी राधिका तो कुछ अधिक ही समझदार हो गयी है!
कभी-कभी तो आशा करता हूँ कि काश मैं जीवन का सारा ज्ञान भुला दूँ ,ताकि तुम मुझे पुनः सब सिखा दो!"

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