"नहीं-नहीं, कदापि नहीं। यही अंतिम निर्णय है बाबा। आप सब लोग बस मेरा समर्थन कीजिएगा, कल उसके विराट प्रस्थान करने से पूर्व ही हम उसे रोक देंगे। वह अवश्य अनेक प्रयत्न करेगा हमें समझाने हेतु, किन्तु कुछ भी करके आप सभी हमारे निर्णय पर अडिग रहिएगा। हम सबका अडिग रहना सर्वोपरि है।"
"मुझे ज्ञात ही था कि हस्तिनापुर में जो हुआ उसके पश्चात द्वारका में यही प्रतिक्रिया होनी थी इसलिए मैं सीधा विराट ही जाना चाहता था किन्तु दाऊ के आदेश के कारण यहाँ आना पड़ा।
अब द्वारका से निकल पाना कठिन होगा किन्तु कोई नहीं, आज से पूर्व भी अनेक बार दाऊ का विरोध किया है, एक और बार सही!"कृष्ण द्वार के बाहर खड़ा यह बातें सोच ही रहा था कि भीतर से द्वार की ओर बढ़ती पद-ध्वनियों से सचेत हो वह अपने कक्ष की ओर दौड़ गया।
वैसे तो यूँ चोरी-छिपे किसी की बातें सुनना गलत है किन्तु कृष्ण के आगे क्या गलत? क्या सही?
और फिर किसने कहा कि कृष्ण केवल 'सही' कार्य करता था? असल में बात तो यह थी कि कृष्ण जो करता था वह कार्य स्वतः ही 'सही' हो जाता था, किन्तु केवल कृष्ण के लिए। ऐसा इसलिए नहीं कि वो 'कृष्ण' था, बल्कि इसलिए क्योंकि उस व्यक्ति के प्रत्येक कार्य के पीछे एक मन्तव्य होता था जिसका संबंध सम्पूर्ण संसार के कल्याण से होता था, वास्तव में यही बातें उस व्यक्ति को 'कृष्ण' बनाती है।_
प्रातः कृष्ण के सभागृह में प्रवेश करने से पूर्व ही सभा प्रारंभ हो चुकी थी। घोषणा हुई, "द्वारिकाधीश पधार रहे हैं।" और कृष्ण के प्रवेश उपरांत सब उसके स्वागत हेतु अपने-अपने स्थानों पर खड़े हुए।आमात्य विपृथु ने भुजडंड को अत्यंत हर्ष के साथ भू पर मारा जिससे सभी ने अपना-अपना स्थान पुनः ग्रहण किया और सभा में एकाएक शांति छा गई।
"आइए श्रीकृष्ण। स्वागत है आपका। हमें इतने दिनों से आपकी प्रतीक्षा थी।" विपृथु बोले।