मैया के लल्ला

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"मैया-मैया, कहाँ हैं आप?"

"अरे, कृष्ण?
यहाँ हूँ पुत्र, अपने कक्ष में। भीतर आ जाओ।"

"कब से आप ही को ढूँढ रहा था। वो आने वाले राजभोग के लिए पकवानों की सूची तैयार करनी है, उस विषय में आप से पूछने आया था।"

"आय मेरा बच्चा! जब से द्वारिकाधीश बना है तुझे श्वास लेने का भी समय नहीं है। पूरा दिन किसी न किसी कार्य में लगा रहता है लेकिन फिर भी रात्री होते ही अपनी मैया पास आना नहीं भूलता।
और फिर मैं सब समझती हूँ, जो इस विशालकाय द्वारिका का निर्माण कर सकता है क्या वो एक सूची तैयार नहीं कर सकता? किन्तु फिर भी अपनी माता का दिल रखने के लिए हर कार्य करने से पूर्व मुझसे सलाह लेता है!"

मुख पर हाथ रखकर हँसते हुए उसने कहा,
"अरे नहीं मैया, आपको तो पता ही है मैं केवल खाने के कार्य में निपुण हूँ, खिलाना क्या है यह तो आप जाने।"

"कृष्ण! ऐसा कहकर स्वयं को कुदृष्टि न लगाओ पुत्र!"

"अरे मैया, आपका प्रेम है न मेरी रक्षा के लिए।
अब आप वो सब छोड़िए और बताइए कि क्या-क्या बनवाना है।"

"तुम देख लो पुत्र। मैं क्या जानु? वैसे भी मेरा लल्ला तो अपना प्रिय भोजन त्याग चुका है फिर सबको कितना भी प्रेम से खिला दूँ मुझे कदापि तृप्ति नहीं मिलेगी।"

देवकी के पास बैठकर, उसका हाथ अपने हाथ में लेकर कृष्ण बोला,
"मैया--"

"क्या मैया? खाएगा तू कभी दूध-दही-माखन फिर?"

"माँ, आप जानती हैं न, मैं--नही--मैं-"

उसके सर पर हाथ रखकर सहलाते हुए देवकी बोली, "मैं जानती हूँ पुत्र। मैं समझती भी हूँ। खाएगा तो तब ना जब ब्रजवासियों के भाँति प्रेम से खिलाने वाला कोई होगा!"

"नहीं मैया! ये आप क्या बोल रहीं हैं! मैंने तो कभी ऐसा नहीं कहा!"

"माँ हूँ तेरी! माना कि वर्षों तक तुझसे विलग थी किन्तु फिर भी समझती हूँ तुझे।
ब्रज की बात ही अलग थी, हैं ना? कभी-कभी सोचती हूँ कि कितना प्रेम करते होंगे वे तुझसे! विशेषकर तेरी यशोदा मैया!
कितना प्रेम होगा तुझे वहाँ की गायों से कि तुने गो-रस से बने पदार्थ त्याग दिए!"

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