वह श्रावण के प्रथम सोमवार का सवेरा था। चमेली की कलियों से पारद समान निर्मल पुष्पों के प्रसफुटित होने के कारण फुलवारी दमक उठी थी। जहाँ पवन का अति सौम्य वेग चमेली की मीठी गंध को पसार रहा था, वहीं दिवाकर की दिव्य किरणों से धवल पुष्पदलों पर पड़ने वाला सुनहरा बिम्ब यूँ प्रतीत हो रहा था मानों दुग्ध में सुवर्ण मधु की धार बह रही हो।
उसी बगिया के घेर के मध्य में वसुदेव महाराज एक हाथ में पकड़े बाँस के पात्र में पुष्प एकत्रित कर रहे थे के उसी क्षण कृष्ण का आना हुआ।"प्रणिपात बाबा!" चरण-स्पर्श करते हुए उसने कहा।
"कल्याण हो पुत्र!
वैसे प्रतिदिन तो तुम यहाँ नहीं आते, फिर आज कैसे?"मुस्कराते हुए उसने कहा, "क्यों बाबा, शिवजी की आराधना का सारा पुण्य आप ही को अर्जित करना है क्या?"
हँसते हुए वे बोले, "अरे नहीं-नहीं पुत्र! और वैसे भी यह तो सम्भव ही नहीं है, क्योंकि स्वयं भोलेनाथ को भी ज्ञात है कि द्वारिका में तुमसे बड़ा उनका कोई भक्त नहीं!
वो तो बस तुम्हे कार्य का इतना भार है ऐसे में मुझे लगा कि तुम सेवकों द्वारा पूजन की सामग्री मँगवा लोगे।""नहीं बाबा, अपने आराध्य के लिए हर कार्य मैं स्वयं ही करूँगा। वैसे भी द्वारिका के प्रथम श्रावण को स्मरणीय बनाने के लिए अपूर्व आयोजन करना है, जिससे उमाशंकर की कृपा सदा हम पर बनी रहे।"
"यह तो तुने उचित कहा! चल फिर कान्हा, पुष्प एकत्रित करने का कार्य आरंभ करते हैं! आ जा!"
यह कहकर वसुदेव चमेली के पुष्पों को एकत्रित करने में जुट गए। किन्तु कृष्ण अपने स्थान से नहीं हिला।
यह देखकर उन्होंने पूछा;"अरे पुत्र, क्या हुआ? रुक क्यों गये?"
"कुछ नहीं। वो जिस उत्साह से आपने मुझे 'कान्हा' कहा, उससे नंदबाबा का स्मरण हो आया।"
"अच्छा?
नंद भी तुझे 'कान्हा' कहकर संबोधित करता था?""हाँ बाबा।
और न केवल ये, बल्कि और भी बहुत सी बातें हैं जिसमें आप दोनों मुझे एक ही से प्रतीत होते हैं।"