"अरे! खड़ी क्या हो सखियों? पकड़ो उसे!"
"अब रहने भी दे! यह तो वह प्रतिदिन करता ही है। चल आज जाने देते हैं।"
"अच्छा? तो मतलब वो हमारी मटकियाँ तोड़ दे और हम उसे जाने दे?-कदापि नहीं!
तुम्हें नहीं आना सो मत आओ। उसके लिए मैं अकेली ही पर्याप्त हूँ!""अरे लेकिन सुन तो-"
लेकिन वो ठहरी गोपी-वो भी कृष्ण की-वो थोड़े ही किसी की सुनने वाली थी!
उस साँझ तो उसने ठान लिया था-कृष्ण को पकड़कर ही रहेगी!
वह भागती रही कृष्ण के पीछे और अन्ततः निधिवन में पहुँची।पहुँचते ही कृष्ण को वृक्ष की टहनी पर बैठा पाया-आह! क्या दृश्य था!
ढलते सूर्य की उन किरणों से चमकता उसका नीलवर्ण यूँ प्रतीत हो रहा था मानों नीलमणि सुवर्ण के पात्र में पिघल रही हो। पवन के शीतल झोंके से लहलहाता उसका मोरपंख-कानों के वे चमकते कुण्डल, नेत्र चौंधिया देने वाले-फड़फड़ाने वाला उसका पीतांबर-हवा में झूलते उसके चरण-कमल और तलवों पर व्याप्त रक्तवर्ण!फिर क्या था?
पिघल गयी गोपिका!और फिर कृष्ण भी 'कृष्ण' ठहरा!
करधनी से बाँसुरी निकाल, छेड़ दिए सुर!और कृष्णप्रेम के उन सुरों में खो गयी गोपिका!
अन्ततः वह ध्वनि सन्नाटे में विलीन हो गयी।
अब?
अब कृष्ण की दुर्दशा की बारी थी!"क्यों रे कन्हैया? स्वयं को कहीं का राजा समझते हो के जब जो मन में आए वो करोगे?
और मुझे क्या मैया समझा है जो तुमको जाने दूँगी?
तुम्हारे नटखटपन से पिघलने वाली नहीं हूँ मैं!
पता भी है कितना परिश्रम करना पड़ता है हम गोपियों को? साँझ-सवेरे दधि मथ-मथकर हथेली पर देखो निशान पड़ गये हैं! लेकिन तुम्हारे क्या जाता है-केवल एक क्षण में यूँ हमारी मटकियों का सत्यानाश कर देते हो!
क्यों, तुम्हारी मैया क्या माखन नहीं देती तुम्हें जो प्रतिदिन यहाँ मुँह मारने आ जाते हो? नहीं तुम एक बात बताओ-""शांत गोपिके, शांत!
अब एक सामान्य से माखन के लिए इतना सुनाओगी?"