होली

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पतझड़ आता है पत्ता – पत्ता झड़ता है

सौंदर्य विहीन हो जाती है प्रकृति

और तभी आता है वसंत

वासंता रंग की चुनरिया

ओढ़ लेती है प्रकृति ।

फूलों का इंद्रधनुष लेकर

खेलते है होली कामदेव

रति के साथ ।

धरती से उड़ता गुलाल

आकाश को भी रंग देता है

अवनि और अम्बर एक हो जाते है

प्रकृति और पुरुष का मिलन होता है

मदमस्त हवाएँ चलती हैं, रंग बिरंगे फूलों से

महक उठते हैं उपवन, सतरंगी इंद्रधनुष तो

मानो पृथ्वी पर ही उतर आता है

मधुवन सा बन जाता है प्रकृति का प्रांगण

तभी आता है त्यौहार होली का

उत्सव होली का, प्रेम का उत्सव

रिश्तों को प्रेम जल से सींचने का

त्यौहार है, रिश्तों की भूमि की

उर्वरा बनता है जीवन में आई शुष्कता के

मरुस्थल को बदल देता है

प्यार की पवित्र गंगा में

उत्सव होली, का भिगोता है तन और मन

लेकिन स्वयं का नहीं

वरन दूसरों के तापों को हरता है

भिगोकर उन्हें ।

निकालता है जैसे शूल

दूसरेके पांव का ।

होती है उपलब्धि

अदभुत आनंद की

और दे जाती है

सन्देश भगवान महावीर की वाणी का

जियो और जीने दो सौन्दर्य का उत्सव है

रंगो का सौंदर्य बिखर - बिखर जाता है

सत्यम शिवम् सुंदरम की कल्पना

साकार हो उठती है ।

उत्सव होली का

स्वार्थ से परमार्थ की अनुभूति है

हास्य हास परिहास का उत्सव है

अंदर का कलुष धुल - धुल जाता है

मन दर्पण पर लगी धूल पुछ जाती है

पवित्र हँसी के छींटो से

        - by Shashi Jain

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