6. 𝗚𝗹𝗮𝗮𝗻𝗶

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क्यों मैं ढूंढना चाहूं
इन तारों में बीती हुई बातों को?
क्यों इस हृदयभेदी ग्लानि
को अपने भीतर में समाए रखूं?

क्यों ज़रूरत है आखिर
इसको किसी आशियाने की?
जब दरार पड़ी दीवारों पर
मैं ना अब ऐतबार करूं?

थोड़ी सीलन लगी है इन दीवारों पर
पर मौसम तो बारिश का ना था
बाहर पत्ते भी ना हिले
जब वो बरसात हुई

बस एक कमरा है...
बंद पड़ा है जो काफी सालों से
दरवाज़ा ना उसका
रोशनी देखता कभी

चाबी कोई दूर फेंक आया है उसकी
धूल से सना है आंगन मेरा
बस कुछ कदमों के निशान हैं
तो फिर क्यों ढूंढना चाहे तू बसेरा?

क्यों खुद को कोसूं मैं
जब ये है घर मेरा?
हवा से रूबरू तो रोज़ाना होते हैं,
क्योंकि सुनसान नहीं रास्ता मेरे घर का

लोग मिल जाते हैं कुछ पल
"कहना" तो हर कोई करता है
तो फिर सिर्फ "सुनना"
क्यों मेरी आदत बन गई?

रास्ते के पत्थरों से टकरा कर भी,
फिर मन में ये आंधी क्यों घर कर गई?
क्यों मैं ढूंढना चाहूं
इन तारों में बीती हुई बातों को?

ऐसी कौन सी हृदयभेदी ग्लानि ने
गले लगाया?
जो अब बोझ लिए इस देह पर मेरे,
रास्ते में अपने कदम रख देती हूं

क्योंकि सुनसान नहीं है
रास्ता मेरे घर का
हर रोज़ दो लफ्ज़
किसी के मैं सुन लेती हूं

फिर टकरा गई एक शख्स से,
ज़ख्म जिसके हाथ पर था,
बंद जो था काफी देर से,
एक मुस्कान लिए वो चल दिया फिर.

ना देखा मेरी ओर,
ना पट्टी उसने अपनी फिर बांधी
बंद कमरा मेरा,
जाने क्यों आज चीख रहा था?

कदम बढ़ाए उसकी ओर
पर चाबी तो ना थी
रात भर आंधी चली वहां
मेरे घर की छत भी अब डगमगाने लगी

"गिर जाएगी" ये कहती रही
पर आवाज़ मैंने कभी लगाई नहीं
तो क्यों मैं ढूंढना चाहूं...?
और क्यों मैं इस ग्लानि को अपने भीतर समाए रखूं?

Kyu me dhundhna chahu
in taaro me beeti hui baato ko?
Kyu is hridaybhedi glaani
ko apne bheetar me samaye rakhu?

Kyu zarurat hai aakhir
isko kisi aashiyane ki?
Jab daraar padi deewaro par
me na ab aitbaar karu?

Thodi silan lagi hai in deewaro par
Par mausam to baarish ka na tha
Bahar patte bhi na hile
jab wo barsaat hui

Bas ek kamra hai...
Band pada hai jo kafi saalo se
Darwaza na uska
roshni dekhta kabhi

Chaabi koi dur fek aaya hai uski
Dhool se sana hai aangan mera
Bas kuch kadamo ke nishaan hai
To fir kyu dhundhna chahe tu basera?

Kyu khud ko kosu me
jab ye hai ghar mera?
Hawa se ruburu to rozana hote hai
Kyunki sunsaan nahi rasta mere ghar ka

Log mil jate hai kuch pal
"Kehna" To har koi karta hai
To fir sirf "sunna"
Kyu meri aadat ban gayi?

Raste ke pattharo se takra kar bhi
Fir man me ye andhi kyu ghar kar gayi?
Kyu me dhundhna chahu
in taaro me beeti hui baato ko?

Aisi konsi hridyabhedi glani ne
gale lagaya?
Jo ab bojh liye is deh par mere
Raste me apne kadam rakh deti hu

Kyunki sunsaan nahi hai
rasta mere ghar ka
Har roz do lafz
kisi ke me sun leti hu

Fir takra gayi ek shaks se
Zakhm jiske hath par tha
Band jo tha kafi der se
Ek muskan liye wo chal diya fir

Na dekha meri aur,
na patti usne apni fir bandhi
Band kamra mera
Jane kyu aaj cheekh raha tha?

Kadam badhaye uski aur
Par chabhi to na thi
Raat bhar andhi chali wahan
Mere ghar ki chhat bhi ab dagmagane lagi

"Gir jayegi" Ye kehti rahi
par awaaz mene kabhi lagayi nahi
To kyu me dhundhna chahu...?
Aur kyu me is glaani ko apne bheetar samaye rakhu?

Kavi Ya Kavita?Where stories live. Discover now