दास्तान -ए- दर्द

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हमसफर था जो दे गया है कुछ दर्द सा
दिल जम गया है जैसे हर मौसम हो सर्द सा
जो हमदर्द बन रहे हो जो है सो बांट लेना
दर्द दर्द के खेल में कोई नया मर्ज ना देना।
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हुस्न -ए- नूर को बाजारों में तराशा नहीं करते
है इश्क इबादत इसका तमाशा नहीं करते
सुरत अपने यार की कही दिल में दफना दे
जालिम है जमाना कहीं बदनाम ना करदे।
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खुदा बना लिया जिसे उसने दिया ना तवज्जो
नाता रूह का था फकत घायल भी हुई रूह
घाव रूह के है दर्द ये कैसे करू जाहिर
जाहिर है क्या करना के अब दिल हो गया काफिर।
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कबूल कर ली जुदाई गर यही है रजा
है जिंदगी यही जो लग रही थी सजा
बात ये है सही जरा सुनना मेरे यारों
इश्क से ज्यादा है इस दर्द में मजा।
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जुदा थे रास्ते दोनों के
खबर उनको भी थी हमको भी
पर चल दिए बनके हमसफ़र
जिद उनको भी थी हमको भी।
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सोचा कि दिल का दर्द आज, रख दू निकाल मैं
दिल ए रंजिशो को आज बस, कर दू बयान मैं
फकत सोचते ही दखो कागज कतरा के उड गये, स्याही भी गिर गई
लो आज फिर कत्ल कर किस्मत मेरे जज्बातों की, मजार बना गई।
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जिन आखों से वो जाम पिया करते थे
मयखाने अब वो डूब गए
आज फर्क इतना ही है यारों
उनके हाथों से जाम छलकता है
और हमारी आखों से।
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उसने कहा कितनी मोहब्बत करती हो
मैने आंखों से मुस्कुरा दिया
कि प्यार जताना आया ही नहीं
उसने पूछा क्या जुदाई से डरती हो
इन आंखों में मातम सा छा गया
कि दर्द जताना आया ही नहीं
वो सोचते हैं कि हाल-ए-दिल कहा ही नहीं
पढ़ लेते जरा इन आंखों को
कि जबान पे लाना आया ही नहीं।
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तेरे होने का जो एहसास दिलाए
हां वो महक आज भी है
तेरी बेरूखी ने जो जख्म बनाए
हां वो कसक आज भी है।
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