मेरी नाव...
बिना पतवार...
वक्त की धार-
-पर बहती चली गयी...
और पहुँची उस पार...
जहाँ, न कोई सुख था...
न कोई दुःख था...
मैं नहीं था...
फिर भी था..
न चेतना, न कल्पना...
प्रकाश ही प्रकाश था...
उस प्रकाश पर सवार...
अनन्त से भी पार...
मैं शून्यता में चला गया...
वहाँ न ज़मीन थी...
ऊपर न आसमाँ..
अज़ीब सी शान्ति थी...
तभी एक लहर आयी...
जो मुझे काल-चक्र से बाहर लायी..
मैं वापस अपनी नाव पर सवार...
किनारे की तरफ बढ़ने लगा..
मेरे हाथो में अब एक पतवार थी......____________________________________
नवनीत कुमार ।
©®2016
सर्वाधिकार सुरक्षित ।।
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