मैं लिखता हूँ

31 5 0
                                    

मैं लिखता हूँ
या बिनता हूँ छींटे
मनुष्यभाव के।
समय पर्दे पर जो बिखरे
उमंग राग चित्त सुनहरे
पर-अनुभूति में स्वयं डूबो
पाऊँ व्यवहार के कई ककहरे
अनकही बातों के मर्म निकाल
नित नूतन जीवन जीता हूँ
मैं लिखता हूँ।

बन किरदार अपने किस्से के
करूँ संचित हर्ष हिस्से के
बनता धनाड्य़ सेठ कभी
कभी बन कोटर वंचित के
संग पाता इन किरदारों के और
कई स्वप्न सुनहरे बुनता हूँ
मैं लिखता हूँ।

दर्पण समझूँ लेखन को या
गाथा अनकही विचारों की
संबल समझूँ स्वयँ के लिए
या मग डगमग आहों की
निश्चित जटिल परंतु सहज
समझ हर्षित हो उठता हूँ
मैं लिखता हूँ।

परिकल्पनाजहाँ कहानियाँ रहती हैं। अभी खोजें