बूढ़ी आंखें

130 14 3
                                    

बूढ़ी आंखें
पथरा गई थीं बाट जोहते​
प्रतीक्षा में कर मन चंचल
आतुर हो बारंबार विकल
अविरत बेचैन नेपथ्य को
देख रही थी बूढ़ी आंखें।

भाती नहीं आज उषा की पौ
मधुर खग-क्रीड़ा से असंलग्न हो
थमा वक्त जो निर्मम होकर
को कोस रही रह रह वो
माणिक से छलकने को आतुर
हो रही बूढ़ी आंखें।

रुद्ध हृदय अवरुद्ध मन
लगे माह के भांति प्रतिक्षण
धन्य! प्रेम विशुद्ध जिस बल
किया अपना सर्वस्व समर्पण
सुन गूंज नेपथ्य से, उन अधरों की
चमक उठी बूढ़ी आंखें।

स्नेह-वृष्टि करने में तत्पर
हृदय-प्राण न्योछावर को अग्रसर
करपाश में भींचे 'मनमोहन' को
आह! अप्रतिम दृश्य मनोहर
रुंधे भाव से कंपित मुख, पर
हर्षित हो उठीं बूढ़ी आंखें।

परिकल्पनाजहाँ कहानियाँ रहती हैं। अभी खोजें