🪔🪷लक्ष्मीनारायण 🪷🪔

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प्रेम जो तुमसे है प्रिया,कैसे इस हृदय में छुपाऊं,
पड़ती यह दृष्टि जिस और भी ,बस तेरे ही दर्शन पाऊं।
फ़िर आन पड़ी ' अग्नि परीक्षा ' की वेला,
मेरी सिये ,कितने दुखों को हर युग में तुमने सहर्ष है झेला।
हरने सब संताप अपने ' हरि ' के ,तुम्हें ही तो पग बढ़ाना होगा,
प्रेम इस धरा पे स्वयं जल ,फ़िर  से तुम्हें फैलाना होगा।
तुम ' सौभाग्य की देवी ', स्वयं ' भार्गवी ' हो ,
पर हर एक जन्म तुम , ' भाग्यचक्र ' में पिसी हो।
तुम्हारे ' श्रीनिवास ' के पग ,तुम्हें ही ढूंढ़े बिन विराम के,
जैसे दी अग्नि को , ली अग्नि से फिर मांग ' सीता, राम ' ने।
कभी ' राजकन्या जानकी ',कभी ' गोपकुमारी राधा ',
तो कभी ' ब्राह्मणों की श्री, भार्गवी ',हर रूप में तुमने मेरे अवतार को है साधा।
ये डगर कभी भी सरल तो नहीं थी ' कमला ' ,
टूटा मैं कई बार,पर तुम चलती रही अविचल, सदैव सबला।
कभी वन के कांटों पर चल मुस्काती,आंचल की कर छाव अपने राम को प्रेम जताती,
तो बनके ' राधिके ' ,जग उद्धार हेतु मुझे स्वयं से दूर कर भी साथ निभाती।
युग बदले,काल या फिर बदल जाये रूप,
लक्ष्मीनारायण को मिलने से ना रोक पाए देव,असुर,कोई भूप।

लक्ष्मीनारायण ,प्रेम अध्याय पर मेरा प्रयास।

इस कविता को लगभग 1 वर्ष पूर्व लिखा था,आज आप सबसे सांझा कर रहीं हूं...🌺

छाप तिलक सब छीनी रे....Where stories live. Discover now