قد أبدو لك ..
بهيئه حجر متحرك..
ولكنني اعاني..
من فتاته..
بداخلي..
ولكن ماشد عيناك..
هو صلابته..
اختر من يرى..
ذاك الفتات..
من بين الصلابه..
واختر من يرى..
رمادك..
قبل نشوب الحريق..
أتسأل لماذا؟
دعني أختصر..
وصفي..
احضر مسمارا..
واطرقه على طاولة..
مثلا..
اتشعر بغزارته..
في داخل الخشب..
أم ترى شموخه من الأعلى؟
على الاغلب ستقول ..
شموخه..وثباته..
فلو جئتني وقلت ..
غزارته..
سأكون على يقين..
بأنك الشخص
الذي..
يرى اللامرئي..
لماذا اكتب..
هذا؟
لأنني آمنت بوجود..
ذلك الشخص..
الذي مهما..
بدوت قوياً..
شامخاً..
قاسياً..
أحبني بكل تلك..
القوه..
وأحبني بكل ..
تلك الثورات اللعينه..
المتراكمة بداخلي..
اقتحم داخلي ..
وأخرجني ..
من ذاك المدعو..
بالبرود..
اختر الشخص الذي..
يرى مالا يراه..
بك الغير..
اختر الشخص ..
الذي تؤمن بأن وجوده..
يخلق الفرق..
شخص يجعلك..
تؤمن بالخيال ..
الواقعي..
شخص آمن بأحلامك..
قبل حدوثها..
بحروفك قبل نطقها..
شخص قد تقف ..
حياته..
لميلان شفتيك..
لإحمرار عينيك..