कागज़ के फूलों सी ये ज़िन्दगी
जलने लगती है तेज़ धूप पड़ते ही
बारिशों में भी है पिघली सी
ढूंढ़ती हुई एक सूखी छांवडरती है ना जाने क्यों
हर आहट की आवाज़ सुनते ही
बहकी कुछ और कुछ सहमी सी
खोज रही है एक अपना मकांबारिशों में नाचती थी ज़िंदादिल
धूप में चलती ही जाती थी
आसमान में घर बनाने को
ज़मीं पर दौड़ती उड़ने कोआज कागज़ बनके कोरा सा
ढलती है दूजे कुछ हाथों से
ना बारिश अब इसकी सहेली
ना धूप में खुशी की अठखेलीक्यों बिखर गई ये ज़िन्दगी
डरने लगती है तेज हवा चलते ही
कागज़ है उड़ सकती है
पर आसमान से ही अब क्यों डरती है।