ज़िन्दगी हुई ऐसी आखिर क्यों?

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कागज़ के फूलों सी ये ज़िन्दगी
जलने लगती है तेज़ धूप पड़ते ही
बारिशों में भी है पिघली सी
ढूंढ़ती हुई एक सूखी छांव

डरती है ना जाने क्यों
हर आहट की आवाज़ सुनते ही
बहकी कुछ और कुछ सहमी सी
खोज रही है एक अपना मकां

बारिशों में नाचती थी ज़िंदादिल
धूप में चलती ही जाती थी
आसमान में घर बनाने को
ज़मीं पर दौड़ती उड़ने को

आज कागज़ बनके कोरा सा
ढलती है दूजे कुछ हाथों से
ना बारिश अब इसकी सहेली
ना धूप में खुशी की अठखेली

क्यों बिखर गई ये ज़िन्दगी
डरने लगती है तेज हवा चलते ही
कागज़ है उड़ सकती है
पर आसमान से ही अब क्यों डरती है।

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⏰ पिछला अद्यतन: Dec 01, 2019 ⏰

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