काश ही काश है।

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इस नगरी में जहां देखो काश ही काश है
काश का देखो फैला कैसा प्रकाश है
देखो जहां वहां सच्चाई का ना वास है
बस मानवता का ही सर्वनाश है।

स्वयं न किसी मे बदलने की आस है
परंतु दुनिया से हर कोई हताश है
क्रोध का चहुँओर फैला पाश है
परजन अब अपना, हर एक खास है।

बंदूकों में अब अपना विकास है
संदूकों में बंद प्रज्ञा का लिबास है
अचेतन मन बन चुका एक लाश है
अपनों की जलती चिता से भी निराश हैं।

चेतना में केवल प्रतिशोध की प्यास है
अश्रु मात्र दुखी दिखने का प्रयास है
जीवन का महत्व बन गया एक ताश है
शहीदों की चाह में बिछा कालपाश है।

देवता क्या यहाँ मानवता का अवकाश है
अर्पण तन से अब छिन गई श्वास है
जीवंत आज करना वो इतिहास है
निष्ठा का लहू जहां न निराश है।

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