काँटे

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कांटे समेटे हैं मैंने
ज़ख्मों में चुभते हैं अब भी
अंधेरों में घर बनाया है
रोशन है ये मकां तब भी

पहना है लिबास आधा
आधा बाकी है अब भी
उन ज़ख्मो पर लपेटा है
जिनके निशाँ गहरे हैं अब भी

दास्ताने वजूद है मुझमे
बिखर के संवरता है आज भी
चूंकि महकता है ये पुराना मकान
खुशबू का एक जरिया बाकी है अब भी।

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