क्या उसका कोई घर नहीं

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जो मकान को घर बनाती है
जो दिल को छू जाती है
जो हर मुश्किल में काम आती है
कभी बहन कभी माँ बनकर हम सबका ख्याल रखती है
कभी पत्नी तो कभी बेटी बनकर छोटी छोटी बातों में सलाह देती है
कभी चाची मामी या दूसरे किसी रूप में भी सहारा बन जाती है
हर दुख को अपने पर झेल जाती है
कभी किसी काम के लिए ना नहीं करती है
साल भर काम करके भी वेतन नहीं मांगती है
शिशु को जन्म देकर एक नए जीवन का आरंभ करती है
खुद दर्द सेहकर दूसरों को खुशी देती है
खुद भूखी रहती है पर कुछ नहीं कहती है
अपनी परवाह किए बिना सबके बारे में सोचती है
बिना छुट्टी के भी लगातार काम करती है
बस बदले में कभी कभी थोड़ा प्यार और थोड़ी इज्जत मांगती है
पर वो भी ना मिलने पर मन मारकर फिर से दौड़ भाग में लग जाती है
सब कुछ करके भी उसको एक ही पंक्ति सुनने में आती है
पराए घर जाना है या पराए घर से आई हो
सब कुछ करके भी वो अकेली रह जाती है
परिवार में रहकर भी वो अकेलापन महसूस करती है
लोगों के बीच रहकर अपनी बात कहने के लिए वो किसी का चेहरा ढूंढती है
कभी कभी रोने के लिए वो कोई कोना ढूंढती है
जो हर लम्हे को आसान बनाती है
जो हर पल निस्वार्थ भाव से काम करती है
जो सब के लिए सब कुछ करती है
क्या उसका कोई घर नहीं?

उन सभी स्त्रियों को समर्पित जिन्हें कभी अपने जीवन में उपयुक्त में से किसी भी घटना का भागीदार होना पड़ा हो।

कविता में पूर्ण विराम का प्रयोग एक स्त्री के जीवन की अपूर्णता को दर्शाने के कारण नहीं किया गया है।

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