अध्याय ३ - कर्मयोग

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नमस्कार मित्रों, अध्याय २ में श्री कृष्णा अर्जुन के प्रश्नो का उत्तर देते है सांख्य योग, निष्काम कर्म योग, भक्ति योग और ज्ञान योग के बारे में समझाकर। श्री अर्जुन को अपने कई प्रश्न के उत्तर तो मिले किन्तु कई प्रश्न खड़े भी हो जाते है उनके मन में। तीसरे अध्याय में श्री कृष्ण कर्म योग के बारे में और व्यवस्थित तरीके से कर्मयोग कैसे करें इसके बारे में बतलाते है। अर्जुन के प्रश्न जितने गहरे होते जा रहे है श्री कृष्ण उतनी ही गहराई से उन प्रश्नो के उत्तर को देकर अर्जुन के विषाद को पूर्णतः समाप्त कर देना चाहते है।

अध्याय ३ - कर्मयोग
अर्जुन पूछते है की यदि कर्म की अपेक्षा ज्ञान श्रेष्ठ है तो श्री कृष्ण उन्हें भयंकर कर्म में क्यों फसा रहे है। श्री कृष्ण के इस मिले जुले शब्दों से अर्जुन भ्रमित महसूस करते है। जिससे श्री कृष्ण निष्काम कर्मयोग का महत्त्व समझाना शुरू करते हैं।
२ प्रकार के कर्म को बताते हुए श्री कृष्णा कहते है की एक मार्ग तो ज्ञान का है जिसपर चलकर व्यक्ति सांख्ययोगी बन सकता है और दूसरा मार्ग है निष्काम कर्म का जिसपर चलकर भी सिद्धि को प्राप्त किया जा सकता है। ऐसा कोई मनुष्य हुआ ही नहीं जो कर्म को आरम्भ किये बिना ही निष्कर्मता को प्राप्त कर सके, और ना ही केवल सारे कर्मो को त्याग कर ही सिद्धि को प्राप्त कर सके। इसका समन्वय समझना अत्यंत अनिवार्य है। मनुष्य चाहे जीस भी काल में जन्म लेले वह प्रकृति के तीन गुणों से (रजो, सतो, तमो गुण) से निवृत होता है। और उन गुणों के द्वारा कर्म करने के लिए बाध्य होता है।
यहाँ श्री हरी यह भी कहते है की जो मनुष्य ऊपर से हठपूर्वक अपनी इन्द्रियों को रोक कर अंदर से (मन ही मन में) उन इन्द्रियों का चिंतन करता है वो मिथ्याचारी और पाखंडी होता है। किन्तु जो इन्द्रियों को वश में करके बिना इन्द्रियों के मोह में आकर इन्द्रियों से ही अपने कर्म को करता रहता है वो श्रेष्ठ पुरुष मन जाता है। साथ ही सारे कर्म शास्त्रों के अनुसार हो तो ही वो कर्म श्रेष्ठ माने जाते हैं। जो कर्म शास्त्र और नियमो से बंधे ना हो, ऐसे कर्म करने से व्यक्ति कर्मो के चक्र में फसता चला जाता है। यज्ञ और नियम से कर्म करने वाले व्यक्ति से देवता प्रसन्न होते है और मनवांछित फल देते है, जिसके भोगने पर कोई दोष नहीं लगता। किन्तु जो व्यक्ति ईश्वर के द्वारा दिए गए भोगों को उनको अर्पित किये बिना ही भोग लेता है उसे श्री कृष्ण ने चोर बताया है और पाप कर्म का भोगी बताया है।
इसलिए मित्रों हमे ईश्वर द्वारा भोजन, वस्त्र, भूमि, माकन या किसी प्रकार की भी वास्तु का अधिपत्य मिले तो हमारा कर्त्तव्य यह है की उसे पहले ईश्वर को अर्पित करें।
श्री हरी यह भी कहते है की ईश्वर अथवा यज्ञ को अर्पित बिना किये भोजन करना पाप को खाने के सामान है, वहीँ ईश्वर को अर्पित करके भोजन करने से वह प्रसाद की श्रेणी में आ जाता है और पापो से मुक्त करता है। इसे इस प्रकार भी बताया गया है की ईश्वर से ज्ञान की प्राप्ति होती है, ज्ञान से कर्म की उत्पत्ति होती है, कर्म से यज्ञ और आहुतियों का जन्म होता है, यज्ञ से वर्षा होती है, वर्षा से अन्न की उत्पत्ति होती है और अन्न से जीव मात्र की उत्पत्ति होती है। तो यह कहने में कोई शंशय नहीं करना चाहिए की ईश्वर यज्ञ में ही स्थित है। और जो व्यक्ति यज्ञ अथवा निमित से दूर है वह पाप कर्म का ही भोगी है।
साथ ही जो व्यक्ति केवल आत्मा में तृप्त है और आत्मसंतुष्ट है उसके सारे कर्म निष्काम हो जाते है। और कर्म का फल उसे नहीं लगता। श्री कृष्ण राजा जनक का उदाहरण देते हुए कहते है की राजा जनक भी निष्काम कर्म के द्वारा ही मुक्ति को प्राप्त हुए थे। इसलिए हमे केवल अपने स्वार्थ के लिए नहीं अपितु दुसरो और सृष्टि के उद्धार के लिए ही कर्म करना चाहिए।

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