अध्याय ५ - कर्मसन्यास योग

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*"श्रीमद्भगवद गीता सार-अध्याय 5*
नमस्कार मित्रों, अध्याय 4 में श्री कृष्ण ज्ञानकर्मसन्यासयोग के बारे में बताते हुए अपने अनेकानेक जन्मों के बारे में कहते है की धर्म की रक्षा के लिए वे बार बार प्रकट होते है, और किस प्रकार मनुष्य को अकर्म अपनाकर कर्म के बंधनो से छुटकारा पाना चाहिए। अपने हर कर्म को ईश्वर में समर्पित करके मुक्ति का मार्ग अपनाना ही जीवन का मुख्य लक्ष्य है। और यह समझते हुए अंत में पुनः श्री अर्जुन को आदेश देते है युद्ध करने के लिए।

अध्याय ५ - कर्मसन्यास योग
श्री अर्जुन पुनः शंशय में युक्त हो जाते है की श्री कृष्ण एक तरफ कर्म से मुक्ति की बात करते है और दूसरी तरफ सकाम और निष्काम कर्म करने की बात कहते है। *"मैं युद्ध करूँ तो कर्म से मुक्ति नहीं होती, और ना करूँ तो निष्काम कर्म ही नहीं होता।"* तो दोनों मार्ग में सर्वश्रेष्ठ मार्ग कौन सा है, जो सर्वाधिक कल्याणकारी हो। इसपर श्री कृष्ण कहते है की कर्मसन्यास योग और निष्काम कर्मयोग दोनों ही श्रेष्ठ मार्ग है किन्तु निष्काम कर्मयोग सुगम एवं सरल होने के कारण ज्यादा श्रेष्ठ है। जो मनुष्य किसी से द्वेष नहीं करता, जिस मनुष्य किसी की आकाँक्षा नहीं करता, जो निस्वार्थ भाव से अपने कर्म को करता है, ऐसा कर्मयोगी सन्यासयोगी के समान ही फल पाता है और कर्मबन्धन से मुक्त हो जाता है। केवल मुर्ख व्यक्ति ही सन्यासयोग और निष्काम कर्म योग के फलों में भिन्नता देखता है, जबकि ज्ञानीजन को ज्ञात है की दोनों में ही परमात्मा से मिलन निश्चित है। जिस परमधाम को ज्ञानयोगी प्राप्र्त करता है उसी परमधाम को निष्कामकर्मयोगी भी प्राप्त करते है, और ऐसा जानने वाला ही यथार्थ जानता है। किन्तु सन्यासयोगी को भी चाहिए की पहले कर्मयोग में निपुणता प्राप्त करें तभी वे परमात्मा को शीघ्र प्राप्त कर सकते है।
मित्रों यहाँ श्री कृष्ण साफ़ शब्दों में बता रहे है की कैसे कर्मयोग सबसे ऊपर है, निष्काम कर्म करके कितनी सरलता से मनुष्य परमात्मा को प्राप्त कर सकता है, जबकि अन्य मार्ग पर चलने वाले योगीजनों को भी पहले निष्कामकर्मयोग में निपुणता लाना आवश्यक है।
आगे श्री कृष्ण कहते है की एक निपुण कर्मयोगी वो है जिसने खुद पर विजय प्राप्त कर ली है, जिसने अपने मन तथा इन्द्रियों को वश में कर लिया है, जिसने शांति प्राप्त कर ली है, और जो खुद को परमात्मा से भिन्न नहीं मानता अपितु स्वयं को उसका हिस्सा ही मानता हो। ऐसे कर्मयोगी किसी भी कर्म में लिप्त नहीं होते।
मित्रों हर अध्याय में बार बार श्री कृष्ण कर्म के बंधन से मुक्ति ही वास्तविक मुक्ति है इसपर अर्जुन का ध्यान खींच कर ला रहे है, इससे हमे यह समझ लेना चाहिए की कर्म जब तक निस्वार्थ भाव से ना हो तब तक बाकी की सारी मेहनत और संघर्ष एक मिथ्या बनकर हमे इस जन्म मृत्यु के चक्र में फसा कर रखी रहेगी। यदि मनुष्य वाकई में इन चक्करों से बाहर निकलना चाहता है तो उसे केवल अपने निष्काम कर्म में ध्यान देने की आवश्यकता है। इसका और सरल उपाय आगे श्री कृष्ण बताते है।
जो मनुष्य तत्व को जानता है वो उठता, बैठता, सूंघता, देखता, सुनता, चलता, भोजन करता, त्यागता, सोता और यहाँ तक की श्वाश भी लेता हुआ यह सोचता है की यह *मैं नहीं कर रहा हु।* और जब ऐसा सोचकर मनुष्य अपने सारे कर्मों को ईश्वर को अर्पण करता है और आसक्ति त्याग कर कर्म करता है वह मनुष्य उसी प्रकार कर्म से लिप्त नहीं होता जिस प्रकार कमल के पत्ते जल में रह कर भी जल से लिप्त नहीं होते। जहाँ कर्मयोगी कर्मों के फल का त्याग करके भगवद्प्राप्ति करता है, वहीँ सकाम व्यक्ति इच्छाओं में बंधकर कर्मों से आसक्त होकर कर्म के जाल में फंस जाता है।
मित्रों मनुष्य क्या कर्म करेगा, किस प्रकार से वो कर्म करेगा, और उस कर्म का क्या फल होगा यह तीन बातें ईश्वर तय नहीं करता। कर्म क्या करना है और कैसे करना है यह मनुष्य द्वारा प्रकृति के अधीन रहकर कीया जाता है, और कर्म का फल उसी प्रकृति के द्वारा कर्मानुसार मिलता है। यहाँ इसमें कोई शंशय नहीं करना चाहिए की यह प्रकृति श्री कृष्णा के अधीन है। श्री कृष्ण ये भी कहते है की ना वे किसी के अच्छे कर्म या बुरे कर्म को ग्रहण करते है, बस जिस अज्ञान के कारण मनुष्य का ज्ञान ढाका हुआ है उसी से मनुष्य मोहित होकर सारे कर्म करता है। उसी अज्ञान को हटा कर ज्ञान दिखाने का काम श्री कृष्ण करते है। उसके लिए मनुष्य को श्री कृष्ण के तत्व का ज्ञान होना अनिवार्य है। परमगति को प्राप्त करने के लिए मनुष्य को अपने अज्ञान को और अपने पापो को ज्ञान से मिटाना होगा और अपना सर्वस्व ईश्वर पर आश्रित करना होगा।

विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि |
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिता: समदर्शिन: || 18||
जो मनुष्य विद्यावान और विनयवान ब्राह्मण, गौ, कुत्ता, हाथी और कुत्ते में भेद नहीं करता वही मनुष्य ज्ञानी है। यहाँ हमे इस विषय का ध्यान रखना चाहिए और जीवन में कभी भेदभाव नहीं करना चाहिए चाहे वो गरीब, आमिर, जाती, धर्म, रंग, लिंग, बनावट या किसी भी आधार पर हो। श्री कृष्णा की संरचना में भेद भाव करने वाला मनुष्य आसक्ति से भरा हुआ पाप को प्राप्त होता है।
जिनका मन समभाव में स्थित है, जिन्होंने मन से समूर्ण विश्व को जीत लिया है, जो अच्छे समय में हर्षित और बुरे समय में दुखी नहीं होते, जो बहार के विषयों में अपनी आसकती नहीं रखते और अन्तः कारण (आत्मशांति) को प्राप्त है वही व्यक्ति मोक्ष के लायक है और परमात्मा को प्राप्त होते है। साधक को चाहिए की वो मृत्यु से पहले ही मनुष्य शरीर में काम क्रोध से उत्पन्न होने वाले वेग को सहन करने में समर्थ हो जाता है वही पुरुष योगी है और वही सुखी है। जिनके सब पाप नष्ट हो चुके हों, जिनके सब शंशय निवृत्त हो गए हो, जो हर प्राणियों को सम भाव से उनके हितों के लिए ही देखता हो, जो निश्चलभाव से परमात्मा में अपना मन स्थित करते हो वो ही परमात्मा को पते हैं।
मनुष्य को बहार के विषयों के बारे में सोचना बंद करके, नेत्रों को बंद करके, ध्यान अपने भृकुटि के मध्य स्थित करके तथा नासिका में प्राणवायु और अपान वायु को सम करके इन्द्रिय, मन, और बुद्धि को अपने वश में करने का प्रयत्न करना चाहिए। ऐसे में मनुष्य के काम, क्रोध और भय का नाश हो जाता है और वह मुक्त हो जाता है। इसके लिए श्री कृष्ण कहते है की उन्हें सम्पूर्ण लोकों के ईश्वरों का भी ईश्वर, सब तपों और यज्ञों को भोगने वाला, समस्त भूत-प्राणियों का सुहृद अर्थात मित्र मानने वाला शांति को प्राप्त होता है।
मित्रों यहाँ मनुष्य को इस दुविधा में नहीं फसना चाहिए की चाहे कर्मयोग, सन्यासयोग, या सांख्ययोग की बातें श्री कृष्ण ने की किन्तु हर जगह भक्तियोग का वर्णन भी किया। उसका कारण साधारण है की चाहे आप किसी भी योग को पकडे, सारे भक्ति योग के अंतर्गत ही आते है। सब श्रीकृष्ण की भक्ति के अंदर ही समाहित है। जब हम आगे के अध्यायों में भक्तियोग को देखेंगे तब इसपर गहराई से जानकारी मिलेगी। तब तक भक्ति में लगे रहना है, और इच्छाओ को दरकिनार करके, मन और इन्द्रियों को वश में करने का प्रयत्न करना है।

।। हरे कृष्ण।।

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