अध्याय ८ - अक्षरब्रह्म योग

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नमस्कार मित्रों, विज्ञान जहाँ अभी अपनी पहली सीढ़ी चढ़ रहा है वही श्रीहरी ने सपूर्ण ब्रह्माण्ड के विज्ञान का निचोड़ श्रीगीता के सप्तम अध्याय में बताया, साथ ही प्रकृति के तत्वों के बारे में बताते हुए उन्होंने श्रीहरी की भक्ति को सर्वश्रेष्ठ मार्ग बताया। किन्तु फिर भी ब्रह्म क्या है, अध्यात्म क्या है और कर्म के और भी कितने रूप है इस शंशय के साथ श्री अर्जुन पुनः अपने प्रश्नो का भण्डार श्री हरी के चरणों में अर्पित कर देते है। इन्ही प्रश्नो के उत्तर को श्री कृष्ण *अक्षरब्रह्मयोग* की इस अधया में सुंदरता से देते है।
अध्याय - ८ अक्षरब्रह्म योग
श्री अर्जुन श्री कृष्ण से पूछते है की ब्रह्म क्या है, अध्यात्म क्या है और कर्म क्या है, अधिभूतं किसे कहते है और अधिदेव कौन है? इन प्रश्नो को विराम ना देते हुए वे आगे पूछते है की अधियज्ञ क्या है और वो शरीर में किस प्रकार विराजमान है और जो उत्तम श्रेणी के योगी और सिद्ध पुरुष है वो अंत में श्री हरी को किस प्रकार से जान पाते है? यह ७ प्रश्न श्री अर्जुन खुद को शंशय से मुक्त करने हेतु श्रीहरी के सामने रखते है।
श्री कृष्ण कहते है की जो परम अक्षर है, जो सदैव रहने वाला है वो "ब्रह्म" है अर्थात परमब्रह्म ही परमात्मा है। जो आत्मा मनुष्य के शरीर के अंदर वास करती है उसको ही जानना अध्यात्म है। और जो जीवों के शरीर से उत्पन्न होने वाली गतिविधियां ही कर्म या सकार्म कर्म कहलाती है। जो निरंतर परिवर्तनशील भौतिक जगत है वही अधिभूत कहलाते है। परमेश्वर के विराट रूप की धारणा जिसमे सारे देवी देवता समा जाते है उसे अधिदेव कहते है। इस मनुष्य के शरीर में अंतर्यामी रूप से श्रीकृष्ण ही है जिसे अधियज्ञ कहते है। जो पुरुष अंतकाल में श्री हरी का स्मरण करते हुए प्राणों को त्यागता है वह मनुष्य ईश्वर के साक्षात् प्राप्त करता है। इसमें शंशय नहीं करना चाहिए। वास्तविकता में मनुष्य अंत काल में जिस जिस भी भाव को स्मरण करता हुआ शरीर का त्याग करता है वो उसी गति को प्राप्त होता है।
मित्रों यहाँ ऐसा सोचना मूर्खता पूर्ण होगा की क्या हो यदि हम पूरा जीवन पाप में लिप्त रहे और अंत काल में ईश्वर का स्मरण कर लें और उत्तम गति को प्राप्त हो जाएं। ऐसा नहीं हो सकता और उसका कारण भी सरल है, दरअसल हम जिन चीजों से घिरें रहते हैं, हम स्वयं भी उसी के प्रभाव में रहते हैं, यह असंभव है की आप पूरा जीवन पाप करें अंत में ईश्वर का नाम ले पाएं, क्यूंकि पूरा जीवन आपने जिस प्रवृति में समय बिताया अंत काल में आपके मस्तिष्क में उन्ही बातों का प्रभाव रहेगा, वैसे ही विचार घूमते रहेंगे। इसलिए यदि अंत काल में हमे ईश्वर का स्मरण करते हुए प्राणों को त्यागना है तो उसकी शुरुवात और अभ्यास अभी से करनी होगी। जब हम अभी से नित्य ईश्वर के स्मरण में अपने समय को व्यतीत करेंगे तो मृत्यु के समय स्वाभाविक रूप से ईश्वर का ही नाम हमारे मुख में रहेगा, और हम आसानी से परमात्मा को प्राप्त कर पाएंगे या उनके नजदीक जन्म लेकर अगले जन्म में मुक्ति को प्राप्त कर सकते है। इसका सबसे सरल उपाय भक्तियोग के सम्राट भगवान श्री चैतन्य महाप्रभु ने बताया है कि यदि हम निरंतर श्रीहरि के महामंत्र
*"हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।"*
*"हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।"*
का जप करते रहेंगे तो अंतकाल में समस्त इन्द्रियों के साथ ईश्वर का ही स्मरण रहेगा और मुक्ति प्राप्त करने में सहायक होगा।
समस्त इन्द्रियों के द्वारों को रोककर, मन को ह्रदय में स्थिर करके, फिर उस जीते हुए मन को प्राण में स्थापित करके, परमात्मा सम्बन्धी योग धारणा में स्थित होकर "ॐ" का उच्चारण करता हुआ परमात्मा में खुद के चित्त को जो मनुष्य स्थिर करता है, और ऐसी अवस्था में शरीर का त्याग करता है, वह परमात्मा को प्राप्त करता है। जो मनुष्य नित्य ही श्री कृष्ण का स्मरण करता है वह परमात्मा को सरल गति से प्राप्त कर जाता है। और जो एक बार उस परमात्मा को प्राप्त कर लेता है वह दुःख को देने वाले इस जन्म मरण के चक्र से मुक्त हो जाता है। ब्रह्मा के बनाये हुए समस्त लोक पुनरावर्ती है, अर्थात बार बार बनते बिगड़ते है। किन्तु जो मनुष्य श्री हरी को प्राप्त कर लेता है वह ब्रह्मा के इस नियम से बहार निकल जाता है और पुनः जन्म नहीं लेता।

इसके बाद श्री कृष्णा ब्रह्मा के काल चक्र के बारे में बताते हुए कहते है की ब्रह्मा का एक दिन १००० चतुर्युग के बराबर है और एक रात पुनः १००० चतुर्युग के बराबर है। और ब्रह्मा जी की आयु १०० वर्ष की है। अपनी आयु की समाप्ति के बाद ब्रह्मा जी भी परमात्मा में लीन हो जाते है। उनके बनाये हुए लोक भी प्रकृति में लीन हो जाती है, और प्रकृति परमात्मा में लीन हो जाती है। बड़ी से बड़ी आयु वाले भी काल के अधीन ही है जबकि श्री कृष्ण कालातीत है अर्थात समय से परे हैं। ब्रह्मा जी के दिन के समय समस्त लोक, ब्रह्माण्ड, सूक्ष्म से सूक्ष्म प्राणी भी ब्रह्मा से उत्पन्न्न होते है और ब्रह्मा जी के रात्रि के समय ये सारे लोक, प्राणी सब ब्रह्मा में लीन हो जाते है। और ब्रह्मा के दिन काल में पुनः ब्रह्मा से उत्पन्न हो जाते हैं। किन्तु इन पथों से भिन्न भी एक पथ है जहाँ कुछ भी विलुप्त नहीं होता, नष्ट नहीं होता या पुनःवृत नहीं होता। जहाँ परम दिव्य पुरुष श्री कृष्ण रहते है। उसी परमधाम को प्राप्त कर लेने की अवस्था को परमगति कहते है। जिस परमत्व के अंतर्गत सर्वभूत है उनको प्राप्त करने का सबसे सरल मार्ग भक्ति ही है।

इसके बाद श्री कृष्ण बताते है की योगीजन किस काल, मुहूर्त में यदि शरीर त्यागते है तो उनका पुनः पृथ्वी पर आना होगा और किन कालों में उनका पृथ्वी पर आना नहीं होगा। इसके लिए वे बताते है की जो योगी अग्निदेव के प्रभाव में, दिन में, शुक्लपक्ष में , उत्तरायण में अपना शरीर त्यागते है वह ब्रह्म को प्राप्त करते है। यहाँ इस बात का ध्यान देना चाहिए की मनुष्य निष्काम कर्म करते हुए ही अपने प्राण त्यागे। जो योगी पुरुष है वे तो अपनी मृत्यु का समय निश्चय करके उसी क्षण प्राण त्यागते है किन्तु संयोग वश भी यदि कोई निष्कामकर्म योगी अच्छे मुहूर्त में प्राण त्यागता है तो उसे जन्म के बंधन से मुक्ति मिल जाती है या ईश्वर के नजदीक उसका जन्म होता है।
वहीँ रात्रि के समय, कृष्ण पक्ष, दक्षिणायन में अपना शरीर त्यागता है तो वह योगी हो तो स्वर्ग में अपने अच्छे कर्म भोग कर पुनः अपने परमात्मा प्राप्ति वाले लक्ष्य की और अग्रसर हो जाता है। ईश्वर के इस रहस्य को जान कर योगी पुरुष वेद पढ़ने के लाभ, दान के लाभ, यज्ञ तप के लाभ से भी कई ज्यादा लाभान्वित होता हुआ परमगति को प्राप्त होता है।

मित्रों इस अध्याय में भी श्री कृष्ण ने परमगति को प्राप्त करना, अर्थात श्री हरी की वास्तविकता को पहचान कर उन्हें ही प्राप्त होना बताया है। अतः उनकी भक्ति करके हम बड़ी सरलता से परमगति परमात्मा को प्राप्त कर सकते है।

।। हरे कृष्ण।।

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