अध्याय ९ - राजविद्याराजगुह्ययोग

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मित्रों, ब्रह्म क्या है, अध्यात्म क्या है, कर्म के रूप, अधिभूत, परब्रह्म, अक्षर, अधिदेव इत्यादि का शंशय जब श्री अर्जुन के मन में उठा तो श्री कृष्ण ने बड़ी सरलता से अर्जुन के उन सारे प्रश्नो को हर लिया जिस प्रकार सूर्य की एक छोटी सी किरण घने अँधेरे को हर लेती है। अर्जुन का शंशय दूर हुआ ही था की इस विज्ञान की रहस्यता को और ज्यादा स्पष्टता से श्री कृष्ण इस अध्याय में आगे बताते हैं।

अध्याय - ९ राजविद्याराजगुह्ययोग
इस ज्ञान की महिमा बताते हुए श्री कृष्ण कहते है यह ज्ञान अति पवित्र, अति उत्तम, धर्मयुक्त और प्रत्यक्ष फल देने वाला है। और जो इसे नहीं मानाने वाला है जन्म-मृत्यु के चक्र में फसा रहता है।
कल्पों के अंत में सारे जीव प्रकृति में लीन हो जाते हैं, और प्रकृति श्रीहरि में लीन हो जाती है, और नए कल्प के आरम्भ में पुनः श्रीकृष्ण सबको रचते हैं। तत्पश्चात मनुष्यों को उनके कर्मों के अनुसार बार बार श्रीहरि सबकी रचना करते रहते है। इतना करने पर भी श्रीहरि कर्मबन्धन में नहीं फसते। श्रीकृष्ण के ही देखरेख में प्रकृति सारे चराचर जीवों को रचती है और इसी कारण यह जन्म-मरण का चक्र भी चलता रहता है। वो केवल मुर्ख ही है जो तुच्छ से मनुष्य का शरीर धारण करके ईश्वर की महिमा को समझ नहीं पाते और उन्हें भी मनुष्य मानने की भूल करते है। ऐसे मनुष्य व्यर्थ की इच्छाओं, कर्मों, आशाओं में और झूठे ज्ञान में लिप्त रहते हैं और राक्षसिया प्रवृति में लिप्त रहते है। किन्तु जो मनुष्य जन श्रीहरि को सर्वस्व, सर्वेश्वर जानकार भजते रहते है, हमेशा उनकी कीर्तन करते हैं, उनकी प्राप्ति के लिए यातना करते है और ईश्वर को बार बार प्रणाम करके निरंतर अपना ध्यान उन्ही में लगाते हैं वे ज्ञानी जन मुक्ति के योग्य माने जाते है। वही कुछ मनुष्य श्रीहरि को अविनाशी जान कर, निराकार ब्रह्म जानकर ज्ञानयज्ञ के द्वारा पूजते हैं और कुछ मनुष्य जन श्रीहरि के विराटस्वरूप की पूजा करते हैं, किन्तु प्रत्येक मनुष्य ये सब मुक्ति के लिए ही करते हैं।
श्री कृष्ण का कहना है यज्ञ, यज्ञ के लिए आहुति की वस्तुएं, औसधि, मन्त्र, घी, अग्नि, हवन करने वाली क्रिया सब श्री हरी ही हैं। इस सम्पूर्ण जगत का धाता, धारण करने वाला, कर्म फलों को देने वाला, माता, पिता, भाई, बंधू, पितामह, जानने वाला, ओंकार, ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद सब श्रीहरि ही हैं। प्राप्त होने योग्य परम धाम, भरण-पोषण करने वाला, सब का स्वामी, शुभाशुभ को देखने वाला, सबका वास स्थान, शरण लेने योग्य, प्रत्युपकार न चाहकर हित करने वाला, सबकी उत्पति प्रलय का हेतु, स्थिति का आधार, निधान और अविनाशी कारण श्री हरी ही है। श्री हरी ही सूर्य रूप से तपते हैं, वर्षा के रूप में बरसते है, अमृत और मृत्यु वही हैं, सत्य और असत्य भी वही है। मनुष्य जब अत्यंत पुण्य कर्म को बटोरकर देह त्यागता है, तो अपने सकाम कर्म के कारण स्वर्ग लोक को जाता है, और अपने सारे अच्छे कर्मों को स्वर्ग में भोग कर, फल समाप्त होने पर पुनः मृत्युलोक में जन्म पाता है। किन्तु जो अनन्य प्रेमी है और ईश्वर को निष्काम कर्म करते हुए भजता रहता है, वह मृत्यु के पश्चात् श्रीहरि को प्राप्त करता है। जो मनुष्य दूसरे देवी देवताओं को पूजता है, वो भी श्रीहरि को ही पूजता है, किन्तु उनको इसका बोध नहीं हो पाता क्यूंकि श्रीहरि ही सम्पूर्ण यज्ञों के भोक्ता और स्वामी हैं। जो मनुष्य देवताओं को पूजते हैं वो देवताओं को प्राप्त होते हैं, पितरों की पूजा करने वाला पितरों को प्राप्त होता है, भूतों को पूजने वाला भूतों को प्राप्त होता है, वैसे ही श्रीहरि को पूजने वाला श्रीहरि को ही प्राप्त करता है। और श्रीहरि को प्राप्त होने से उसका पुनर्जन्म नहीं होता। श्री कृष्ण कहते हैं की जो भक्त उन्हें सकाम कर्म से फल, पत्र, जल, और पुष्प अर्पित करता है, श्री कृष्ण सगुण रूप से प्रकट होकर उस प्रसाद को ग्रहण करते हैं। इसलिए श्रीहरि कहते हैं की मनुष्य जो खाये, पिए, दान करें या हवन करें सर्व प्रथम श्री हरी को अर्पण करें। इस प्रकार करने से मनुष्य के सारे कर्म निष्काम हो कर ईश्वर को अर्पण हो जाते हैं और वो परमात्मा को प्राप्त कर लेता है। ईश्वर सब मनुष्यों में निष्पक्ष भाव से वास करते हैं किन्तु जो मनुष्य उन्हें पूजते है और भजते हैं श्रीहरि उनमे प्रत्यक्ष प्रकट रहते हैं। यदि कोई पापी मनुष्य भी अपने पाप मार्ग को छोड़ कर श्री हरी को भजना प्रारम्भ कर दे तो वह साधु मानने योग्य हो जाता है। वह धर्मात्मा होकर परम शांति को प्राप्त करने वाला हो जाता है। इसलिए यह तो निश्चय है की श्री कृष्ण का भक्त नष्ट नहीं होता। ईश्वर की शरण में आकर सब ईश्वर को प्राप्त हो जाते हैं।
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु |
मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायण: || 34||
मन में मुझे रख, मेरे भक्त होजा, मेरी पूजा कर, मुझे नमस्कार कर। इस प्रकार आत्मा को नियुक्त करके मुझसे जुड़ जायेगा और तेरी आत्मा मेरी होगी।

मित्रों श्री हरी ने इस अध्याय में श्री अर्जुन को बार बार यही समझाया की श्रीहरि सर्वव्यापी है, सर्वस्व हैं, और कण कण में, हर कर्म में, चाहे वो वैदिक हो, पूजा पद्धति का हो या भक्ति का हो, वे ही हर जगह हैं। साथ ही उन्होंने बताया की जो भी कर्म करें तो श्रीहरि को अर्पण करके करें और भोजन करें तो भी उन्हें भोग लगाने के पश्चात् ही करें। ऐसा करने से हमारे निष्काम कर्म में वृद्धि होगी और हम ईश्वर के करीब रहेंगे।

।। हरे कृष्ण।।

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