अध्याय ११ - विश्वरूप दर्शन

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मित्रों, पिछले अध्याय में श्री कृष्ण अपनी योगमाया और विभूति के बारे में जानकारी देते हैं और उसे जानने का फल भी बताते हैं। जिसे सुनकर श्रीअर्जुन कृतार्थ हो चुके हैं और श्रीहरि से उस विश्वरूप, उस विराट रूप, उस विकराल रूप के दर्शन की अभिलाषा से प्रार्थना कर रहे हैं।

अध्याय - ११ विश्वरूपदर्शन
जब अपनी योगमाया श्रीहरि ने बताया तो श्री अर्जुन का सम्पूर्ण मोह दूर हो गया और वो श्रीहरि के उस विराट रूप को देखने को इच्छुक हो गए। श्री कृष्ण की महिमा का गुणगान करते हुए किन्तु मन में संकोच करते हुए श्री अर्जुन कहते हैं की उन्हें श्री कृष्ण के कथन के अनुसार उनका रूप अपने मन में चित्रित तो कर लिया, किन्तु वास्तव में उनके अविनाशी रूप का दर्शन करने की इच्छा भी हो रही है। किन्तु एक साधारण मनुष्य के लिए तो उस अलौकिक दृश्य को और ईश्वर के उस रूप को देख पाना तो संभव है ही नही। इसी कारण से श्री कृष्ण ने अर्जुन को दिव्यदृष्टि प्रदान की और अपने विराट रूप को प्रकट किया।
मित्रों उस दृश्य की आप कल्पना मात्र भी नहीं कर सकते जिस दृश्य को श्रीअर्जुन ने अपने दिव्या चक्षुओं से देखा। वो अकल्पनीय दृश्य जिससे अर्जुन कृतार्थ हो गए, उनका जीवन सफल हो गया, जिसे देखकर कभी उनकी आँखें नम हो जाती तो कभी भय ह्रदय में अपना घर कर लेता था। उस दृश्य को प्रकट कर श्री कृष्ण अर्जुन से कहते है की उनके अंदर अदिति के १२ पुत्र, आठ वसुओं को, ११ रुद्रों को, दो अश्वनीकुमारों को, उनचास मरुद्गणों को, और सम्पूर्ण चराचर जगत को देख।
श्रीकृष्ण कहते है:
यह देख, गगन मुझमें लय है,
यह देख, पवन मुझमें लय है,
मुझमें विलीन झंकार सकल,
मुझमें लय है संसार सकल।
अमरत्व फूलता है मुझमें,
संहार झूलता है मुझमें।
'उदयाचल मेरा दीप्त भाल,
भूमंडल वक्षस्थल विशाल,
भुज परिधि-बन्ध को घेरे हैं,
मैनाक-मेरु पग मेरे हैं।
दिपते जो ग्रह नक्षत्र निकर,
सब हैं मेरे मुख के अन्दर।
'दृग हों तो दृश्य अकाण्ड देख,
मुझमें सारा ब्रह्माण्ड देख,
चर-अचर जीव, जग, क्षर-अक्षर,
नश्वर मनुष्य सुरजाति अमर।
शत कोटि सूर्य, शत कोटि चन्द्र,
शत कोटि सरित, सर, सिन्धु मन्द्र।
शत कोटि विष्णु, ब्रह्मा, महेश,
शत कोटि विष्णु जलपति, धनेश,
शत कोटि रुद्र, शत कोटि काल,
शत कोटि दण्डधर लोकपाल।
'भूलोक, अतल, पाताल देख,
गत और अनागत काल देख,
यह देख जगत का आदि-सृजन,
यह देख, महाभारत का रण,
'अम्बर में कुन्तल-जाल देख,
पद के नीचे पाताल देख,
मुट्ठी में तीनों काल देख,
मेरा स्वरूप विकराल देख।
सब जन्म मुझी से पाते हैं,
फिर लौट मुझी में आते हैं।
'जिह्वा से कढती ज्वाल सघन,
साँसों में पाता जन्म पवन,
पड़ जाती मेरी दृष्टि जिधर,
हँसने लगती है सृष्टि उधर!
मैं जभी मूँदता हूँ लोचन,
छा जाता चारों ओर मरण।

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