अध्याय १६ - दैवासुरसम्पद्विभागयोग

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मित्रों, पिछले अध्याय में श्री कृष्ण ने उत्तम पुरुष होने की प्रवृति के बारे में बताया और कैसे हम जब इच्छाओं से घिरे होते हैं तो जन्ममरण चक्र में फंस कर रह जाते हैं। अब कुछ मनुष्यों में दैवी संपदा होती है तो कुछ में आसुरी संपदा। इसकी विस्तृत जानकारी श्री कृष्ण ने इस अध्याय में दी है।
अध्याय १६ - दैवासुरसम्पद्विभागयोग
श्री कृष्ण कहते है कि जिन मनुष्यों में भय का अभाव रहता है, अंतः करण में पूर्ण निर्मलता होती है, तत्वज्ञान के लिए निरंतर प्रयत्नशील रहता है, सात्विक और उत्तम दान करता है, इन्द्रियों को नियंत्रण करके रखता है, आत्मसंयम हो, भगवन, देवी-देवताओं और गुरुओं की पूजा करता हो, अग्निहोत्र आदि उत्तम कर्मों का आचरण एवं शास्त्रों का पठन-पाठन करता हो, भगवान के गुणों का कीर्तन करता हो, उनका नाम जपता हो, स्वधर्म पालन के लिए कष्ट सहता हो, मन, वाणी और शरीर किसी प्रकार भी किसी को कष्ट न देता हो, यथार्थ और प्रिय भाषी हो, अपना अपकार करने वाले पर भी क्रोध का न करता हो, कर्मों में कर्तापन के अभिमान का त्याग रखता हो, किसी की भी निन्दादि न करता हो, सब भूत प्राणियों में दया रखता हो, इन्द्रियों का विषयों के साथ संयोग होने पर भी उनमें आसक्ति का न हो, कोमलता, लोक और शास्त्र से विरुद्भ आचरण में लज्जा और व्यर्थ चेष्टाओं का अभाव हो, तेज, क्षमा, धैर्य, बाहर की शुद्भि एवं किसी में भी शत्रु भाव का न रखता हो, और अपने में पूज्यता के अभिमान का अभाव हो ये सब श्री कृष्ण के अनुसार दैवी सम्पदा को लेकर उत्पन्न हुए पुरुष के लक्षण हैं।
दम्भ, घमण्ड और अभिमान तथा क्रोध, कठोरता और अज्ञान भी ये सब आसुरी सम्पदा को लेकर उत्पन्न हुए पुरुष के लक्षण हैं।
दैवी संपदा मुक्ति के लिए और आसुरी संपदा बांधने के लिए मानी गई है। यहां श्री कृष्ण कहते हैं कि दैवी समोद की तुलना में आसुरी संपदा वाले मनुष्य के लक्षण कहीं ज्यादा है जो इस प्रकार है। आसुर स्वभाव वाले मनुष्य प्रवृत्ति और निवृत्ति अर्थात क्या करने योग्य है और क्या करने योग्य नही है इन दोनों को ही नहीं जानते । इसलिये उनमें न तो बाहर-भीतर की शुद्भि है, न श्रेष्ट आचरण है और न सत्य भाषण ही है। वे आसुरी प्रकृति वाले मनुष्य कहा करते हैं कि जगत् आश्रयरहित, सर्वथा असत्य और बिना ईश्वर के, अपने आप केवल स्त्री-पुरुष के संयोग से उत्पन्न है, अतएव केवल काम ही इसका कारण है । इसके सिवा और क्या है। इस मिथ्या ज्ञान को अवलम्बन करके जिनका स्वभाव नष्ट हो गया है तथा जिनकी बुद्भि मन्द है, वे सबका अपकार करने वाले कूकर्मी मनुष्य केवल जगत् के नाश के लिये ही समर्थ होते हैं। ऐसे मनुष्य आसुरी संपदा के होते है।
दम्भ, मान और मद से युक्त्त मनुष्य किसी प्रकार भी पूर्ण न होने वाली कामनाओं का आश्रय लेकर अज्ञान से मिथ्या सिद्धांतों को ग्रहण करके और भ्रष्ट आचरणों को धारण करके संसार में विचरते हैं। तथा वे मृत्यु पर्यन्त रहने वाली असंख्य चिन्ताओं का आश्रय लेने वाले, विषय भोगों के भोगने में तत्पर रहने वाले और 'इतना ही सुख है' इस प्रकार मानने वाले होते हैं। ऐसे मनुष्य भी आसुरी संपदा के होते हैं।
वे आशा की सैकड़ों फांसियों से बँधे हुए मनुष्य काम क्रोध के परायण होकर विषय भोगों के लिये अन्याय पूर्वक धनादि पदार्थो का संग्रह करने की चेष्टा करते हैं। वे सोचा करते हैं कि मैंने आज यह प्राप्त कर लिया है और अब इस मनोरथ को प्राप्त कर लूंगा । मेरे पास यह इतना धन है और फिर भी और हो जायगा। यह भी आसुरी संपदा के मनुष्य के लक्षण हैं।
वह शत्रु मेरे द्वारा मारा गया और उन दूसरे शत्रुओं को भी मैं मार डालूंगा । मैं ईश्वर हूँ, ऐश्वर्य को भोगने वाला हूँ । मैं सब सिद्धियों से युक्त्त हूँ और बलवान् तथा सुखी हू। यह भी आसुरी संपदा के मनुष्य के ही लक्षण हैं।
मैं बड़ा धनी और बड़े कुटुम्ब वाला हूँ । मेरे समान दूसरा कौन है ? मैं यज्ञ करूँगा, दान दूंगा और आमोद प्रमोद करूँगा । इस प्रकार अज्ञान से मोहित रहने वाले तथा अनेक प्रकार से भ्रमित चित्त वाले मोह रूप जाल से समावृत और विषय भोगों में अत्यन्त आसक्त आसुर लोग महान् अपवित्र नरक में गिरते हैं।
वे अपने आपको ही श्रेष्ट मानने वाले घमण्डी पुरुष धन और मान के मद से युक्त्त होकर केवल नाम मात्र के यज्ञों द्वारा पाखण्ड से शास्त्र विधि रहित भजन करते हैं।
वे अहंकार, बल, घमण्ड, कामना और क्रोधादि के परायण और दूसरों की निन्दा करने वाले पुरुष अपने और दूसरे के शरीर में स्थित मुझ अन्तर्यामी से द्बेष करने वाले होते हैं।
श्रीहरि कहते हैं कि उन द्बेष करने वाले पापाचारी और कूरकर्मी नराधमों को संसार में बार-बार आसुरी योनियों में ही जन्म लेना पड़ता है। जब तक वह भक्ति मार्ग को प्राप्त होकर अपनी आसुरी संपदा का त्याग नही कर देते।
वे महामूढ़ श्रीहरि को न प्राप्त होकर ही जन्म-जन्म में आसुरी योनियों को प्राप्त होते हैं, फिर उससे भी अति नीच गति को प्राप्त होते हैं अर्थात् घोर नरकों में पड़ते हैं। काम, क्रोध तथा लोभ - ये तीन प्रकार के नरक के द्वार आत्मा का नाश करने वाले अर्थात् उसको अधोगति में ले जाने वाले हैं । अतएव इन तीनों को त्याग देना चाहिये। इन तीनों नरक के द्वार से मुक्त्त पुरुष अपने कल्याण का आचरण करता है, इससे वह परम गति को जाता है अर्थात् श्रीकृष्ण को प्राप्त हो जाता है। जो पुरुष शास्त्र विधि को त्याग कर अपनी इच्छा से मनमाना आचरण करता है, वह न सिद्धि को प्राप्त होता है, न परम गति को और न सुख को ही।
मित्रों जब हमारे दुःख और संकट का समय आता है तो हम सिहवार को जरूर कोसते हैं कि हे ईश्वर हमने ऐसा कौन सा पाप किया जो हमे ऐसा दिन देखना पड़ रहा है। किंतु जब हम अपनी आसुरी संपदा को नही त्यागते, उन्ही में विचरते रहते है और शास्त्र विरुद्ध कर्मपरायण रहते है, उस समय भविष्य के संकट, दुःख, संताप के बारे में विचार नही करते। यदि कर्म करते समय ही कर्मफल का विचार कर लें तो निःसंदेह हम हर प्रकार के बुरे फलों को आने से दूर कर सकते हैं।

हरे कृष्ण
ज्योतिष शास्त्री रवि शर्मा🙏🏻🙏🏻😊

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