मित्रों, अध्याय ५ में श्री कृष्ण कर्मसन्यासयोग के बारे में बताते हुए कर्म को त्याग कर, श्री कृष्ण को अपने सारे कर्म समर्पित करने को ही मुक्ति का मार्ग बताते है। मनुष्य प्रकृति के अधीन होकर कर्म करता है और प्रकृति उसके कर्मो के अनुसार ही फल देती है और इसपर भी प्रकृति श्रीहरि के अधीन रहती है। मित्रों ध्यान मार्ग से भी अपनी आत्मा को जाना जा सकता है। जब व्यक्ति अपनी सारी इच्छाओं का त्याग करके अपनी आत्मा में संतुष्ट रहता है और यह समझने का प्रयत्न करता है की आत्मा को जानने के पश्चात् परमात्मा से मिलन संभव हो जाता है। इसे ही आत्मसंयमयोग कहा गया है।
अध्याय ६ - आत्मसंयम योग
श्री कृष्ण कहते है की जो मनुष्य कर्मफल से अनासक्त होकर केवल करने-योग्य कर्म करता है वही सन्यासी तथा योगी है क्यूंकि केवल कर्मों का त्याग करदेने से कोई सन्यासी नहीं बन जाता। यहाँ श्री कृष्ण यह स्पष्ट करते है की ज्ञान "कर्मो का त्याग" नहीं अपितु कर्मफलों का त्याग है। इसलिए मनुष्य को चाहिए की वे अपने कर्तव्यों को बिना कर्मफल में आसक्त हुए पूरा करते रहे। प्रकृति के अधीन ना रहकर अपने मन, बुद्धि और इन्द्रियों को वश में करते हुए अपने कर्तव्यों को करता जाये। और जिस क्षण मनुष्य इन्द्रियों के भोगों की आसक्ति को छोड़ कर सर्वसंकल्पों का त्याग कर देता है वो मनुष्य ही योगी कहलाता है।*उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत् |*
*आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मन: || 5||*
खुद का उद्धार खुद ही करना है क्यूंकि मनुष्य ही खुद का मित्र अथवा शत्रु होता है।
मित्रों कितनी सूंदर बात श्री कृष्ण ने कही है की मनुष्य स्वयं ही अपना शत्रु होता है और स्वयं ही अपना मित्र। और जिस प्रकार हमे शत्रुओं से नुक्सान पहुँच सकता है और मित्रों से लाभ मिल सकता है उसी प्रकार मनुष्य स्वयं का नुकसान अथवा लाभ करता है। और यदि मनुष्य खुद का उद्धार करना चाहे तो भी वो स्वयं ही कर सकता है, उसे किसी और की आवश्यकता नहीं है, केवल दृढ़संकल्पी होना चाहिए। जिस व्यक्ति ने अपने मन और इन्द्रियों को जीत लिया वह मनुष्य स्वयं ही खुद का मित्र है और जो व्यक्ति अपने मन और इन्द्रियों के अधीन होकर कर्म में आसक्त है वह मनुष्य स्वयं ही खुद का शत्रु है। जो व्यक्ति शरद गरम, सुख तथा दुःख और अन्तः करण वृत्तियों में समभाव रखता है और विचलित नहीं होता ऐसा ही मनुष्य अपना मित्र है और ईश्वर को प्राप्त करता है। जो व्यक्ति प्रेम करने वालो को, मित्रों को, शत्रुओ को, दुखिओं को, द्वेष रखने वाले लोगों को, बंधुओं को, पर्मात्माओं को और पापियों को समभाव देखता है वही श्रेष्ठ पुरुष कहलाता है। मन और इन्द्रियों के सहित शरीर को अपने वश में करने वाला कामनारहित व्यक्ति अकेला ही परमात्मा को प्राप्त कर सकता है।
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श्रीमद्भगवद्गीता - सरल शब्दों में
Duchoweश्रीकृष्ण अर्जुन के बीच महाभारत के रणक्षेत्र कुरूक्षेत्र में हुई ज्ञानज्योति वार्तालाप का संक्षेप में वर्णन।