अध्याय १० - विभूतियोग

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नमस्कार मित्रों, पिछले अध्याय में श्री अर्जुन को बार बार यही समझाया गया की श्रीहरि सर्वव्यापी है, सर्वस्व हैं, और कण कण में, हर कर्म में, चाहे वो वैदिक हो, पूजा पद्धति का हो या भक्ति का हो, वे ही हर जगह हैं। साथ ही उन्होंने बताया की जो भी कर्म करें तो श्रीहरि को अर्पण करके करें और भोजन करें तो भी उन्हें भोग लगाने के पश्चात् ही करें। ऐसा करने से हमारे निष्काम कर्म में वृद्धि होगी और हम ईश्वर के करीब रहेंगे। आगे श्री कृष्ण अपनी योगमाया और विभूति क्या है और उसे जानने का क्या फल होता है इसके बारे में कहते है।

अध्याय - १० विभूतियोग
श्रीहरि के लीला से प्रकट होने के राज को ना महर्षिगण और ना ही देवतागण जानते हैं क्यूंकि देवताओं और महर्षियों के आदिकारण भी श्रीहरि ही हैं। जो श्रीहरि को अजन्मा, अनादि, सर्वेश्वर जानते है वे ही मुक्त होने योग्य हैं। प्राणियों में जितने प्रकार के भाव उत्पन्न होते हैं जैसे सुख, दुःख, संताप, उत्पत्ति, प्रलय, भय, अभय, हिंसा, समता, संतोष, तप, दान, कीर्ति, अपकीर्ति, यश, अपयश, सत्य, ज्ञान, निश्चय करने की क्षमता, यथार्थ ज्ञान, दया, क्षमा, इन्द्रियों को वश में करना और मन को स्थिर करना इत्यादि सारे भाव श्रीहरि से ही उत्पन्न होते हैं।
सप्तऋषि, चौदह मनु, चार उनसे भी पूर्व सनकादि ऋषि ये सब भी श्रीकृष्ण के संकल्प से ही उत्पन्न हुए हैं।
अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते।
इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः।।10.8।।
*"मैं वासुदेव ही सम्पूर्ण जगत की उत्पत्ति का कारण हूँ"* और श्री हरी से ही संसार में कर्म होता है ऐसा जानकर भक्तजन श्री हरी की गुणगान करते है, उनकी महिमा का बखान करते है, उनके तत्व को जानते हैं, वैसे निरंतर ईश्वर के योग में लगे हुए भक्त परमात्मा को प्राप्त होते है। क्यूंकि ऐसे मनुष्यों पर ईश्वर का विशेष अनुग्रह रहता है जिससे श्रीहरि हमारे अज्ञानता को नष्ट कर देते हैं।
श्री अर्जुन इसपर श्रीहरि की महिमा को बताते हुए कहते है की श्रीहरि ही स्वरवेश्वर, सर्वयापाक, अजन्मा, अनादि, अनंत, नित्य, पवित्र, सृष्टिकरता, परम ब्रह्म, परमधाम, परमपवित्र, है और इसमें कोई शंशय है ही नहीं की देवर्षि नारद और अनेकानेक महाऋषियों ने उनका गुणगान किया है। इसके साथ ही अर्जुन प्रश्न भी करते हैं की किस प्रकार श्रीहरि का निरंतर चिंतन किया जाता है और किन किन भावों से श्री हरी का चिंतन करने योग्य है?
इसके उत्तर में अपनी दिव्या₹ विभूतियों को बताते हुए श्री हरी कहते हैं प्रत्येक जीवों के अंदर स्थित आत्मा श्रीहरि ही हैं, और प्रत्येक जीवों के आदि, मध्य और अंत भी श्रीहरि ही हैं। अदिति के बारह पुत्रों में विष्णु, ज्योतियों में सूर्य, उनचास वायुदेवताओं का तेज और नक्षत्रों का अधिपति चन्द्रमा भी श्री हरी ही हैं। यहाँ इस बात में ध्यान देना चाहिए की जिसक्षेत्र में जो सर्वश्रेष्ठ हैं वो भी श्री हरी ही हैं। वेदों में सामवेद, देवों में इंद्रदेव, इन्द्रियों में मन, समस्त जीवों की चेतना भी श्रीहरि ही है। एकादश रुद्रों में शंकर, यक्षों में धन का स्वामी कुबेर, आठ वसुओं में अग्नि, पर्वतों में सुमेरु पर्वत श्रीहरि ही हैं। पुरोहितों में बृहस्पति, जलाशयों में समुद्र, सेनापतियों में स्कन्द भी श्रीहरि ही हैं। महाऋषियों में भृगु ऋषि, शब्दों में ओंकार, सबप्रकार के यज्ञों में जपयज्ञ, और स्थिरता में पहाड़ भी श्री हरी ही हैं।
मित्रों यहाँ यज्ञों में जपयज्ञ कहने से यह स्पष्ट होता है की सर्वश्रेष्ठ प्रकार का कोई यज्ञ है तो वो है मन्त्रों का जप इसलिए श्री हरी के महामंत्र का जप करना सर्वश्रेष्ठ उपाय है श्रीहरि को प्राप्त होने का। आगे श्री हरी कहते हैं:
अश्वत्थः सर्ववृक्षाणां देवर्षीणां च नारदः ।
गन्धर्वाणां चित्ररथः सिद्धानां कपिलो मुनिः ॥10.26॥
अर्थात वृक्षों में पीपल श्री हरी है, और देवर्षियों में नारद से श्रेष्ठ कोई हो ही नहीं सकता, गंधर्वों में चित्ररथ और मुनियों में कपिलमुनि भी श्रीहरि ही हैं। घोड़ों में अमृतमंथन से उत्पन्न होने वाला उच्चैःश्रवा हाथियों में ऐरावत और मनुष्यों में राजा भी वही हैं। शस्त्रों में बज्र, गायों में कामधेनु, सर्पों में वासुकि भी श्रीहरि ही हैं। पवित्र करने वालों में वायु, शस्त्रधारियों में श्री राम, मछलियों में मगरमच्छ और नदियों में गंगाजी भी श्रीहरि है। श्रिष्टियों में आदि, अंत, मध्य भी वही हैं, समासों में द्वन्द-समास, अक्षरों में अकार, विद्या में अध्यात्म और सब ओर मुखवाला विराटस्वरूप, सबका भरण पोषण करने वाला भी श्रीहरि ही हैं। सबका नाश करने वाला मृत्यु, और उत्पत्ति करने वाला जन्म, श्रुतियों में बृहत्साम, छंदों में गायत्री, महीनों में मार्गशीर्ष, ऋतुओं में वसंत भी श्रीहरि ही हैं। सात्विकपुरुषों का सात्विक भाव, छल में जुआ, जीतनेवालों में विजय, वृष्णिवंशियों में कृष्ण, पांडवों में अर्जुन, मुनियों में वेदव्यास, कवियों में शुक्राचार्य, दमन करने की शक्ति, जीतनेवालों की निति, गुप्तरखने वाले बातों में मौन, ज्ञानवानों का तत्वज्ञान भी श्री हरी है। ऐसा कहकर श्री कृष्ण कहते हैं की उनकी विभूतियों का कोई अंत नहीं है, यह तो केवल संक्षेप मात्र है। सम्पूर्ण जगत को अपनी योगशक्ति के एक अंश मात्र से धारण करके स्थित है।

मित्रों श्री हरी ने इस अध्याय में अपने सम्पूर्ण स्वरुप को विस्तार से समझाया और श्री अर्जुन के मुक्तिमार्ग को खोल दिया। उनकी भक्ति ही हमारा अंतिम लक्ष्य है।

।। हरे कृष्ण।।

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