अध्याय १२ - भक्तियोग

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मित्रों, पिछले अध्याय में श्री कृष्ण ने अपने विराट स्वरुप का दर्शन श्रीअर्जुन को दिया। श्री अर्जुन कृतार्थ होकर और उनके भयभीत कर देने वाले स्वरुप को देख कर उनकी आराधना करने लगे और चतुर्भुज दर्शन के लिए विनती करते हैं। जिसके बाद उन्हें श्रीहरि के चतुर्भुज रूप के भी दर्शन होते हैं। सब प्रकार के मोह से छुटकारा पाकर श्रीअर्जुन अब पूरी तरह से श्रीहरी के भक्त हो जाते हैं। जिसके कारण अब श्रीहरि भक्तियोग की बातें अर्जुन को समझाते हैं।

अध्याय - १२ भक्तियोग
श्री अर्जुन श्रीकृष्ण से पूछते हैं की जो २ प्रकार के भक्त हैं एक तो वे जो भक्तिभाव में लीन होकर श्रीहरि के भजन और ध्यान में लगे रहते हैं और प्रभु को भजते हैं और दुसरे वो जो अविनाशी सच्चिदानंद निराकार ब्रह्म को ही अतिश्रेष्ठ भाव से भजते हैं उन्दोनो उपासकों में सर्वश्रेष्ठ कौन हैं?
इसपर श्रीकृष्ण बताते हैं की जो मनुष्य मन को एकाग्र करके निरंतर वासुदेव का भजन कीर्तन करते हैं, उन्ही के ध्यान में लगे रहते हैं और अतिशय श्रेष्ठ श्रद्धा में लीन होकर गोविन्द के इस सगुणरूप को भजते हैं वे ही उन्हें सर्वप्रिय हैं। परन्तु जो मनुष्य मन-बुद्धि को वश में करके सर्वव्यापी, निराकार अविनाशी, सच्चिदानंद ब्रह्म को ध्यान करते हुए निरंतर भजते हैं वैसे योगी भी श्रीहरि को प्राप्त करते हैं।
अब निराकार ब्रह्म में आसक्त रहकर अद्वैत सिद्धांत पर चलना बहुत कठिन है क्यूंकि आप स्वयं ही शरीर और इन्द्रियों से बंधे होते हैं, ऐसे में निराकार से जुड़ना परिश्रम की बात है। वहीँ जो भक्तिमार्ग में हैं वे श्रीकृष्ण को ही संपूर्ण सगुणरूप परमेश्वर मान कर सब चीज उन्ही को अर्पण भी करते हैं और निरंतर उन्ही को भजते भी हैं। और ऐसे भक्तों को जिनका चित्त ही ईश्वर में लगा हुआ होता है उनको जन्म मरण के चक्र से शीघ्र ही मुक्ति मिलती है।
*"मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय।"*
*"निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः।।12.8।।"*
अर्थात : "मुझ में मन को लगा और मुझ में ही बुद्भि को लगा ; इसके उपरान्त तू मुझ में ही निवास करेगा, इसमें कुछ भी संशय नहीं हैं।"
यदि मनुष्य अपने मन को श्रीकृष्ण में स्थिर नहीं कर पता तो अभ्यास रूप योग के द्वारा वासुदेव को प्राप्त होने के लिये इच्छा कर सकता हैं और यदि इन अभ्यासों में भी असमर्थ है तो श्रीकृष्ण के लिए ही केवल कर्म करे और ईश्वर के निमित्त कर्म को करता हुआ भी ईश्वरीय सिद्धियों को प्राप्त कर सकता हैं। यदि गोविन्द की प्राप्ति रूप योग के आश्रित होकर उपर्युक्त साधन करने में भी कठिनाई हो तो मन, बुद्धि, अहंकार, इत्यादि पर विजय प्राप्त करने वाला बनकर सब कर्मों के फल को त्याग कर भी ईश्वर की प्राप्ति कर सकता है।
आगे श्रीहरि बताते हैं की योगाभ्यास से ज्ञान श्रेष्ठ है, ज्ञान से ईश्वर का ध्यान श्रेष्ठ है, ईश्वर के ध्यान से भी कर्मों का फल त्यागना श्रेष्ठ है, क्यूंकि त्याग से तत्काल परम शांति मिलती है। जो पुरुष सब जीवों को एक सामान देखता हो, द्वेष-भाव नहीं रखता हो, स्वार्थ रहित सबका प्रेमी हो, बिना किसी स्वार्थ के सबपर दया करता हो, जो अहंकार से दूर हो, सुख-दुःख की प्राप्ति में एक भाव रखता हो, क्षमावान हो अर्थात अपराध करने वाले को भी अभय देता हो, तथा जो निरंतर संतुष्ट रहता हो, मन-इन्द्रियों सहित शरीर को वश में रखता हो, और कृष्ण में दृढ निश्चय वाला हो वही भक्त श्रीहरि को सबसे प्रिय हैं। जिससे कोई भी जीव को कष्ट नहीं पहुंचता, जो किसी से भयभीत नहीं होता। जो भय, हर्ष, उद्वेग से रहित है ऐसा भक्त भी श्रीहरि को अति प्रिय है। जो मनुष्य आकांशा से रहित, बाहर-भीतर से शुद्ध, पक्षपात से रहित, दुखों से छूटा हुआ ऐसा भक्त वासुदेव को सबसे प्रिय है। जो न कभी हर्षित होता है और न द्वेष करता है, न शोक करता है और न कामना करता है, जो शुभ अशुभ कर्मों का सम्पूर्ण त्याग कर देता है वैसा भक्ति युक्त मनुष्य श्रीहरि को प्रिय है। जो शत्रु मित्र में एक सामान हो, जो मान और अपमान में एक भाव रखता हो, जो शरद-गरम में एक सामान हो, जो सुख दुःख के द्वंद्व में सम भाव रखता हो, जो निंदा और स्तुति को एक समान सुनता हो और उसे अपनाता हो, जो निंदा में दुखी ना हो और स्तुति में प्रसन्न न हो, जो मननशील हो, जो जिस किसी भी प्रकार से शरीर का निर्वाह होने में सदा ही संतुष्ट हैं और रहने के स्थान में ममता और आसक्ति से रहित हैं वो स्थिर बुद्धि वाला भक्तिपुरुष श्रीकृष्ण को अतिप्रिय है।
मित्रों यहाँ श्री कृष्ण ने भक्ति रस में डूबे हुए भक्तों की व्याख्या बड़े सूंदर शब्दों में की है और इन उपर्युक्त प्रकार से मन को वश में करने से हम भक्तिमार्ग में और दृढ हो सकते हैं और ईश्वर को प्राप्त कर सकते हैं।

।। हरे कृष्ण।।

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