अध्याय १७ - श्रद्धात्रयविभागयोग

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मित्रों, पिछले अध्याय में श्री कृष्ण ने दैवी और आसुरी संपदा, दोनों के लक्षण, दोनों के परिणाम के बारे में विस्तार से जानकारी दी। किस वर्कर हम एक अच्छा जीवन जी सकते है और अपने भविष्य को अच्छा बना सकते है ताकि हमारा लक्ष्य भगवादप्राप्ति का पूर्ण कर सकें। आगे शास्त्र विधि और श्रद्धायुक्त में कौन ज्यादा महत्वपूर्ण, सटीक और किसके कैसे फल हैं इसकी जानकारी श्रीकृष्ण ने इस अध्याय में दी।
अध्याय 17 - श्रद्धात्रयविभागयोग
श्री अर्जुन ने श्री कृष्ण से पूछा कि हे हरि! जो मनुष्य शास्त्र विधि को त्याग कर पूरी श्रद्धा के साथ देवी-देवताओं का पूजन विधि करते हैं उनकी गति क्या होती है। वो किस स्थिति को प्राप्त होते हैं। सात्विक की, तामसिक की या राजसिक की।
श्री कृष्ण उत्तर देते हैं कि सभी मनुष्यों की श्रद्बा उनके अन्त:करण अर्थात स्वभाव के अनुरूप होती है, यह पुरुष श्रद्बामय है, इसलिये जो पुरुष जैसी श्रद्बा वाला है, वह स्वयं भी वही है।
रामचरित मानस में भी श्रीगोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि *"जांकी रही भावना जैसी प्रभुमूर्त देखी तीन तैसी"*
सात्विक पुरुष देवों को पूजते हैं, राजस पुरुष यक्ष और राक्षसों को तथा अन्य जो तामस मनुष्य हैं, वे प्रेत और भूत गणों को पूजते हैं। जो मनुष्य शास्त्र विधि से रहित केवल मन:कल्पित घोर तप को तपते हैं तथा दम्भ और अहंकार से युक्त्त एवं कामना, आसक्ति और बल के अभिमान से भी युक्त्त हैं और जो शरीर रूप से स्थित भूत समुदाय को और अन्त:करण में स्थित मुझ परमात्मा को भी कृश करने वाले हैं अर्थात न मानने वाले है उन अज्ञानियों को असुर स्वभाव वाला मानना चाहिए। भोजन भी सबको अपनी-अपनी प्रकृति के अनुसार तीन प्रकार का प्रिय होता है । और वैसे ही यज्ञ, तप और दान भी तीन-तीन प्रकार के होते हैं। इसकी विस्तृत जानकारी देते हुए श्री कृष्ण कहते हैं की आयु, बुद्धि, बल, आरोग्य, सुख और प्रीति को बढ़ाने वाले रस युक्त्त, चिकने और स्थिर रहने वाले तथा स्वभाव से ही मन को प्रिय ऐसे आहार अर्थात् भोजन करने के पदार्थ सात्विक पुरुष को प्रिय होते हैं। कड़वे, खट्टे, लवण युक्त्त् बहुत गरम तीखे, रूखे, दाहकारक और दुःख, चिन्ता तथा रोगों को उत्पन्न करने वाले आहार अर्थात् भोजन करने के पदार्थ राजस पुरुष को प्रिय होते हैं। जो भोजन अधपका, रस रहित, दुर्गन्ध युक्त्त बासी और उच्छिष्ट है तथा जो अपवित्र भी है, वह भोजन तामस पुरुष को प्रिय होता है।
मित्रों यहां वासुदेव ने साफ शब्दों में यह बताया है कि एक सात्विक भोजन ही मनुष्य के लिए श्रेष्ठ होता है और तामसिक और राजसिक भोजन करने से कैसे मनुष्य का तमस या रजस बढ़ता है।
आगे यज्ञ के बारे में बताते हुए श्रीकृष्ण कहते हैं कि शास्त्र विधि से यज्ञ करना ही कर्तव्य है और इस प्रकार मन में विचार रख कर फल की इच्छा को त्याग लर निःस्वार्थ भाव से किया गया यज्ञ ही सात्विक यज्ञ कहलाता है।
परंतु केवल दम्भाचरण के लिये अथवा फल को भी दृष्टि में रखकर जो यज्ञ किया जाता है, उस यज्ञ को राजसिक यज्ञ मानना चाहिए। और शास्त्र विधि से हीन, अन्नदान से रहित, बिना मन्त्रों के, बिना दक्षिणा और बिना श्रद्धा के किये जाने वाले यज्ञ को तामस यज्ञ कहते हैं।
आगे श्रीहरि शरीर के प्रमुख भागों की तपस्या के बारे में बताते हुए कहते हैं:-
*"शारीरिक तप"*: देवता, ब्राह्मण, गुरु और ज्ञानीजनों का पूजन, पवित्रता, सरलता, ब्रह्मचर्य और अहिंसा यह शरीर सम्बन्धी तप कहा जाता है।
*"वाणी तप"*: जो उद्बेग न करने वाला, प्रिय और हित कारक एवं यथार्थ भाषण है तथा जो वेद शास्त्रों के पठन का एवं परमेश्वर के नाम जप का अभ्यास है वही वाणी सम्बन्धी तप कहा जाता है।
*"मानसिक तप"*: मन की प्रसन्नता, शान्त भाव, भगवच्चिन्तन करने का स्वभाव, मन का निग्रह, और अन्त:करण के भावों की भली भाँति पवित्रता इस प्रकार यह मन सम्बन्धी तप कहा जाता है।
जो मनुष्य इन तीनो प्रकार के तापों को आसक्ति और कामना के बिना श्रद्धा के साथ भलीभांति करता है उसे ही सात्विक मनुष्य कहा जाता है।
यदि उपर्युक्त तीनों तापों में कोई भी तप या तीनों तप सत्कार, मान या अन्य लालच में और पूजा के लिये तथा अन्य किसी स्वार्थ के लिये भी स्वभाव से या पाखण्ड से किया जाता है, वह अनिश्चित एवं क्षणिक फल वाला तप यहाँ राजस कहा गया है। मित्रों यहां यह बात सिद्ध हो जाती है कि यदि हम दिखावे के लिए या निजी स्वार्थ के लिए वाणी, शारीरिक या मानसिक तप करते हैं तो ऐसा राजसिक तप का फल क्षणिक होगा जो जल्दी ही समय हो जाएगा। किन्तु जो तप मूढ़ता पूर्वक हठ से, मन, वाणी और शरीर की पीड़ा के सहित अथवा दूसरे के अनिष्ट करने के लिये किया जाता है वह तप तामस कहा गया है। और ऐसे तप का शीघ्र ही त्याग कर देना चाहिए।
आगे दान देने की प्रक्रिया को समझते हुए श्री कृष्ण कहते हैं कि दान देना ही कर्तव्य है - ऐसे भाव से जो दान देश तथा काल और पात्र के प्राप्त होने पर उपकार न करने वाले के प्रति दिया जाता है (अर्थात ऐसे व्यक्ति को दिया गया जिससे कुछ लाभ तो मिलने वाला ना हो किन्तु वो उस दान के योग्य भी हो), वह दान सात्विक कहा गया है। किन्तु जो दान अपने स्वार्थ के लिए क्लेश पूर्वक तथा प्रत्युपकार(उपहार या उपकार को वापस चुकाने हेतु) के प्रयोजन से अथवा फल को दृष्टि में रख कर फिर दिया जाता है, वह दान राजस कहा गया है। और जो दान बिना सत्कार के एवं तिरस्कार पूर्वक अयोग्य देश काल में और कुपात्र के प्रति दिया जाता है, वह दान तामस कहा गया है।
इसलिए जो मनुष्य दैवी स्वभाव रखकर, सात्विक भोजन को अपनाकर, सात्विक तप का व्यहार करते हुए, सात्विक दान को करता हो वही सर्वश्रेष्ठ मनुष्य श्रीकृष्ण ने बताया है।

आगे श्रीहरि बताते है कि ब्रह्मा के तीन नाम ॐ, तत्, सत् से ही सृष्टि के आदि में ब्राह्मण, वेद और यज्ञादि की रचना हुई थी। इसलिये वेद मन्त्रों का उच्चारण करने वाले श्रेष्ठ पुरुषों की शास्त्र विधि से नियत यज्ञ, दान और तप रूप क्रियाएँ सदा 'ओउम्' इस परमात्मा के नाम को उच्चारण करके ही आरम्भ होती हैं। तत् अर्थात् 'तत्' नाम से कहे जाने वाले परमात्मा का ही यह सब है, इस भाव से फल को न चाहकर नाना प्रकार की यज्ञ तपरूप क्रियाएँ तथा दानरूप क्रियाएँ कल्याण की इच्छा वाले पुरुषों द्वारा की जाती हैं। 'सत्' - इस प्रकार यह परमात्मा का नाम सत्य भाव में और श्रेष्ठ भाव में प्रयोग किया जाता है तथा उत्तम कर्म में भी 'सत्' शब्द का प्रयोग किया जाता है। यज्ञ, तप और दान में जो स्थिति है, वह भी 'सत्' इस प्रकार कही जाती है और उस परमात्मा के लिये किया हुआ कर्म निश्चय पूर्वक सत् ऐसे कहा जाता है। इसलिए बिना श्रद्बा के किया हुआ हवन, दिया हुआ दान एवं तपा हुआ तप और जो कुछ भी किया हुआ शुभ कर्म है वह समस्त 'असत्' इस प्रकार कहा जाता है ; इसलिये वह न तो इस लोक में लाभदायक है और न मरने के बाद ही।
मित्रों यहां भी यह स्पष्ट होता है की हमे सात्विक मन से पूरी श्रद्धा से और शास्त्रीय विधि अनुसार ही सारे यज्ञ, तप, दानादि करने चाहिए अन्यथा उसका कोई फल नही मिलता। और साथ ही हमे किस प्रकार का भोजन करना चाहिए, किस प्रकार का तप करने चाहिए और किस प्रकार से दान करना चाहिए इसका विशेष कर ध्यान देने की आवश्यकता है।
हरे कृष्ण
ज्योतिष शास्त्री रवि शर्मा🙏🏻🙏🏻😊

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