ढल रही थी, शाम और मैने खिड़की से एक नजारा देखा।
फलक पर चांद और जमी पर उजाला देखा।
दूर कही बादलों में छिपाते रोशनी का एक परवाना देखा।
आज शाम मैंने ऐसा एक नजारा देखा।
घर लौटते हुए, पंछियों का एक झुंड देखा।
चहक रहे थे वो किसी बात पर............
मैंने बिता हुआ ऐसा कोई जमाना देखा।
फलक पर चांद और जमी पर रोशनी का ठिकाना देखा।
मैंने ऐसा एक नजारा देखा।
ढल रहा था सूरज और खिल रहा था चांद.........
सूरज को ढलते और चांद को निखरता देखा।
आज मैने अंधेरे को रोशनी निगलते देखा।
ढल रही थी शाम और मैने एक नजारा देखा।
खिड़की के बाहर अंधेरे में गुम जमाना देखा।
थोड़ी देर बाद खिड़की के शीशे में मैने अपना प्रतिबिम्ब देखा। अंधेरे के उस सन्नाटे में मैने खुद की एक उम्र को गुजरते देखा।
ढल रही थी, शाम..............Written by Tulsi
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अनकहे लफ्ज़,,,,,,,
Poetryअनकहे लफ्ज़ जो एहसासों से भरें है। कुछ जुड़े, कुछ टूटे बिखरे पड़े हैं। कुछ अपने है, कुछ तुम्हारे वो अल्फाज़ जो आंशुओ में भरे हैं। ना किसी ने सुने न किसी ने कहे हैं। अनकहे से लफ्ज़,,,,,,,,,,,,