आज खुद में ही खुद को खोकर देखा मैंने।
दूर किसी भीड़ में खुद को अकेले बैठा देखा मैंने।
मौसम खराब सा था मेरे अंदर का, विचारों के घने बादलों को खुद के ऊपर गरजते देखा मैंने।
खुद के अंदर ही सहमी सी बैठी थी मैं।
खुद ही खुद को सिसकियां लेते देखा मैंने।
मैं जिसे बाहर दुनिया समझती थी।
उसे अंदर बस एक वृक्ष की छाया देखा मैंने।
मैं दुनिया को बहुत बड़ी समझती थी।
फिर खुद के अंदर समंदर सी गहराई देखी मैंने।
ख्यालों और ख्वाबों के पानी में डूब रही थी मैं।
खुद को ही खुद बचाने के लिए चींक रही थी मैं।
दूर कही उम्मीदों के ब्रिज पर लोगो की भीड़ लगी थी।
उन्ही भीड़ के बीच में खड़ी मैं, खुद को ही डूबते हुए देख रही थी।
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अनकहे लफ्ज़,,,,,,,
Şiirअनकहे लफ्ज़ जो एहसासों से भरें है। कुछ जुड़े, कुछ टूटे बिखरे पड़े हैं। कुछ अपने है, कुछ तुम्हारे वो अल्फाज़ जो आंशुओ में भरे हैं। ना किसी ने सुने न किसी ने कहे हैं। अनकहे से लफ्ज़,,,,,,,,,,,,