शून्य

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आज फिर शून्य की गहराई में कही खो गई मैं।
कमरे के अंधेरे में कही गुम हो गई मैं।
दमकते से चहरे पर उदासी छाई थी।
गुम सा चेहरा लिए गहरे से शून्य में ताकती रही मैं।
आईने से खुद में ही खुद को झांकती रही मैं।
आज फिर शून्य की गहराई में कही खो गई मैं।
सोचती रही कि क्या खोया क्या पाया, बस इसी कस्मकास में उलझी रही मैं।
जिंदगी खूबसूरत है या सजा इन्हीं ख्यालों में कही खोई रही मैं।
आज फिर शून्य की गहराई में कही गुम हो गई मैं।

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