आज मुझे मेरा शहर याद आ रहा हैं।
खामोश इस माहोल में शोर याद आ रहा है।
बैचेन हूं जब से तब से शहर याद आ रहा है।
गांव का ये खेत नहीं शहर को वो हाईवे याद आ रहा है।
किंकी, पीपी करती गाड़ियों का शोर याद आ रहा है।
किसी और के शहर में मुझे अपना शहर याद आ रहा है।
बैचेन हूं जब से, शहर याद आ रहा है।
अंधेरी पड़ी इन गलियों में गली का वो टिमटिमाता बल्ब याद आ रहा है।
माध्यम सी रोशनी में खेलते बच्चो का वो शोर याद आ रहा है।
बेताबी सी बड़ रही है मुझे मेरा शहर याद आ रहा है।
खामोश इस माहोल में शहर का वो शोर याद आ रहा है।
बैचेन हूं जब से तब से घर याद आ रहा है।
दीदी के हाथों का खाना, मां के बाहों का झूला याद आ रहा है।
बूढ़ी सी हाथों की उंगलियों का, वो सिर को सहलाना याद आ रहा है।
आज मुझे मेरे बचपन की यादों का फसाना याद आ रहा है।
बैचेन हूं जब से, मुझे घर याद आ रहा है।
शाम ढलते पापा का घर आना, उन्हे देख कर मेरा जोरो से चिल्लाना।
कुछ पल एक संग बैठ कर सुकून से बिताना।
शाम की चाय के लिए मम्मी का वो ब्रेड लाना।
ऐसे ही बीता हुआ वो पल याद आ रहा है।
आज मुझे मेरा शहर याद आ रहा है।
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अनकहे लफ्ज़,,,,,,,
Poesieअनकहे लफ्ज़ जो एहसासों से भरें है। कुछ जुड़े, कुछ टूटे बिखरे पड़े हैं। कुछ अपने है, कुछ तुम्हारे वो अल्फाज़ जो आंशुओ में भरे हैं। ना किसी ने सुने न किसी ने कहे हैं। अनकहे से लफ्ज़,,,,,,,,,,,,