किसी को फलक पर चांद की चांदनी अच्छी लगी।
उसके दामन की सितारों से सजी चुनर अच्छी लगी।
मुझे तो मेरी मां की वो मैली ओढनी अच्छी लगी।
उसके दामन की वो सुकून भरी महक अच्छी लगी।
लेट कर मां के आंचल से मुझे नभ की निगरानी अच्छी लगी।
सच कहती हूं मुझे मेरी मां की ओढनी अच्छी लगी।
किसी को जमाने की शोहरत तो किसी को रौनक अच्छी लगी।
ये गगन, ये सागर, ये सावन की बरसात अच्छी लगी।
धरा पर मौजूद हर नदी, तालाब, झरने की कलकल अच्छी लगी। मुझे तो मेरी मां की वो मशूमियत भरी मुस्कान अच्छी लगी।
पर सब से ज्यादा मुझे मेरी मां की मैली ओढनी अच्छी लगी। कसम से मुझे दुनियां से ज्यादा मेरी मां अच्छी लगी।
थक हार के लौटू में जब भी घर, मुझे मेरी मां की चिंता से भरी वो आवाज अच्छी लगी।
बात बे बात मां से झगड़ने की मुझे वो मीठी सी तकरार अच्छी
लगी।
उसके गोद में सर रखकर अंबर को निहारती हुई वो रात अच्छी लगी।
मेरे मुंह पर लहराती मुझे मेरी मां की औढ़नी अच्छी लगी।
सच कहती हूं, खुदा से ज्यादा मुझे मेरी मां अच्छी लगी।
किसी को अजूबों से भरी ये दुनियां खूबसूरत लगी।
पर मुझे सबसे खूबसूरत मेरी मां लगी।
बचपन से अब तक की मां की हर निशानी अच्छी लगी।
पायल की झानक, चूड़ियों की खनक, मां की भीगी सी वो साड़ी अच्छी लगी।
मुझे इस कायनाथ में बस मेरी मां अच्छी लगी।
हां मुझे मेरी मां की वो मैली ओढनी अच्छी लगी।लेखिका,,,,तुलसी
आप पढ़ रहे हैं
अनकहे लफ्ज़,,,,,,,
Poetryअनकहे लफ्ज़ जो एहसासों से भरें है। कुछ जुड़े, कुछ टूटे बिखरे पड़े हैं। कुछ अपने है, कुछ तुम्हारे वो अल्फाज़ जो आंशुओ में भरे हैं। ना किसी ने सुने न किसी ने कहे हैं। अनकहे से लफ्ज़,,,,,,,,,,,,