शिव मंदिर

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मैं काफ़ी देर तक सोचते रहा कि क्या किया जाए? नंदिनी को बचाने में बड़ा खतरा था, दिमाग कह रहा था कि अपनी जान बचाओ लेकिन कोई तो था मेरे अंदर जो मुझे बार-बार रोक रहा था, ……. कुछ तो था जो मुझे उस लड़की को बचाने के लिये मजबूर कर रहा था। सहसा ही मेरे कदम बढ़ते चले गए ….. उस लड़की को बचाने के लिये।

मुझे चलते-चलते लगभग दो घंटे हो गए थे और जंगल लगातार घना होता जा रहा था लेकिन नंदिनी का कोई सुराग नहीं था। वो यहाँ है भी नहीं ये भी नहीं जानता, कैसे पता लगाऊँ नंदिनी का? ……… काफ़ी देर से उसे ढूँढते-ढूँढते अब मैं थोड़ा निराश होने लगा था।

कहाँ खोजूँ उसे? …… वो लोग उसे किस दिशा में ले गये होंगे? ……… वो जिंदा भी होगी या नहीं? ……… वापस चलता हुँ, मैं क्यों अपनी जान खतरे में डालूँ? शाम के चार बज रही थी और थोड़ी ही देर में अँधेरा हो जाएगा, मुझे जल्द ही फ़ैसला लेना था।

हाँ वापस ……. “टंन न न न!!!! ……. टंन न न न!!!!!”।

मैं सोच ही रहा था कि कहीं से घंटे की आवाज़ आई, क्या आस-पास कोई मंदिर है? …….. वो भी इस घने जंगल में? मुझे वापस जाने का रास्ता भी याद नहीं था, सूरज की तपिश मंद पड़ गई थी और वो भी शाम की थकान से लाल होकर पश्चिम दिशा की तरफ़ बढ़ रहा था।

मैं घंटे की आवाज़ की तरफ़ बढ़ चला। वो मंदिर क्या था बल्कि मंदिर का अवशेष था। पत्थर की बनी दीवारें कई जगह से टूटी हुई थी, जगह-जगह पर घास और पेड़ों की जटाओं और बेलों ने दीवारों और खम्बो को ढँक दिया था। सिर्फ़ केंद्र में मंदिर सही-सलामत था जो शायद मंदिर का गर्भगृह था।

१० फ़ीट चौड़ा और १५ फ़ीट लंबा गर्भगृह ही वक्त की मार से अबतक लड़ रहा था। मैं तो इसी भाग को ही मंदिर कहूँगा। ८ फ़ीट लंबा चबूतरा पूरा पत्थर का था, बगल में दो पत्थर के खम्बे थे जिन पर कई तरह की मूर्तियाँ बनी हुई थी जिनमें से किसी को भी पहचानना मुश्किल था।

सामने मंदिर के अंदर शिवलिंग था जिसके सामने ही नंदी की मूर्ति थी। चारों तरफ़ घास, सूखे पत्ते और धूल थी …….. शायद कोई दशकों से यहाँ नहीं आया था। अतीत में भव्यता की मिसाल देता यह मंदिर आज गुमनामी की धूल फाँक रहा था।

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