१३. मैं प्रतिज्ञा हूँ

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शिवपुरवा की आर्य सेना युद्ध स्थल के पास पहुच चुकी है | मुखिया रामराज और वासुदेव आगे आगे चल रहे हैं और सेना तेजी से आगे बढ़ रही है | वासुदेव ने दूर से ही देख लिया कि दस्युओं ने गोल घेरा बना रखा है और उन्हें समझ में आ गया कि कुछ गिने चुने अंतिम लोग ही बचे हुए हैं और प्रतिज्ञा के बारे में सोच सोच के उनका ह्रदय विकल हो उठा | उन्होंने मुखिया रामराज की ओर देखा और मानो उनका आशय समझकर मुखिया रामराज ने अपने सैन्य को संकेत किया और मानो बात को समझ कर पूरी सेना रुकी और क्रमबद्ध होकर अगले ही क्षण बिजली की गति से शत्रु की ओर दौड़ पड़ी | दस्यु सैनिक मानो समझ नहीं पाए की दूसरी सेना इतनी जल्दी कहाँ से आ गयी और वे चौंक कर उस दिशा में अपने अपने अस्त्र शस्त्र संभालते हुए मुड़े |

प्रतिज्ञा ने धरती पर गिरते हुए देखा कि एक अन्य सेना तीव्र गति से उसी ओर आ रही है और सभी दस्यु उसी ओर आनन फानन में दौड़ पड़े | उसके होठों की मुस्कान थोड़ी और बढ़ गयी जब तक उसका सिर धरती को स्पर्श करता और उसने धीरे धीरे अपने नेत्र बंद कर लिए | 

जब प्रतिज्ञा ने अपने नेत्र खोले तो पाया कि वह तपस्थली में धरा पर एक पत्तों की शैया में लेटी हुयी है और वासुदेव कुछ ही दूरी पर पत्थरों पर कुछ घिस रहे है और ऐसा लग रहा है मानो कोई औषधि तैयार कर रहे हैं | उसने अपने घावों को छूकर देखा और पाया कि वहां पर पट्टियां बंधी हुई हैं | वह थोड़ी कठिनाई से उठ बैठी और उसको उठता देखकर वासुदेव दौड़कर उसके पास आये और बोले "मैं तो बहुत डर गया था किन्तु चलो अच्छा हुआ कि मुझे प्राकृतिक औषधियों का ज्ञान है | बीरकुनिया की कुछ स्त्रियों ने मुझे तुम्हें पट्टी करने में सहायता किया और देखो लगभग बीस पच्चीस दिन में तुम्हें चेतना भी आ गयी | मुझे तो लगता है तुम्हारी शक्तियों ने तुम्हे बचा लिया अन्यथा कोई साधारण व्यक्ति तो तुमसे आधे घावों में ही प्राण त्याग देता |"

प्रतिज्ञा ने चिंतित मुद्रा में इधर उधर देखा फिर कहा "बीरकुनिया की स्त्रियों ने सहायता किया ? दीदी कहाँ हैं ? क्या दीदी को भी कुछ हो गया ? बताइये न वासुदेव !!"

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