१. भय और संशय की यात्रा

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०५ अगस्त २०४९ ईo, भोपाल

शाम के साढ़े पाँच बजे हैं| जनशताब्दी एक्सप्रेस हबीबगंज रेलवे स्टेशन से जबलपुर के लिए निकलने के लिए तैयार है| १५ साल की आर्या चिंतित सी अपने सीट पर बैठी नीचे प्लेटफार्म पर लोगों की चहल पहल को देख रही है| "लोग कितने खुश हैं और अपनी अपनी जिंदगी में मग्न हैं | हे भगवान! सब कुछ ऐसा ही बनाए रखना|" लोगों को देखते हुए उसने सोचा|

आर्या और उसका छोटा भाई अपने गाँव जा रहे हैं जो की सिंगरौली जिले में है| आर्या के पिता मेजर आयुष्मान सिंह कुछ दिन पूर्व ही भोपाल में स्थित अपनी बटालियन के साथ पंजाब की सीमा पर गये हैं क्योंकि वहाँ पर परिस्थितियाँ नियंत्रण से बाहर हो रही हैं| आज सुबह ही उसके पिता का फोन आया था और उन्होने कहा था कि देश के आंतरिक हालात बिगड़ने की संभावना है और उन्होने आर्या और उसके भाई को आज ही गाँव के लिए जाने को कहा था | खिड़की पर सिर टिकाए मानो आर्या उसी समय में वापस लौट गयी है जब उसकी बात अपने पिता से हुई थी|

"लेकिन पिताजी! हमारी परीक्षाएँ हैं एक महीने बाद" आर्या ने कहा था|

पिताजी ने कहा था "बेटी! आने वाले समय में यह पढ़ाई किसी काम नहीं आएगी| कृपा कर के बेटी गाँव चली जाओ अपने भाई के साथ और अपने सैनिक पिता की चिंता दूर कर दो|"

अपने पिता की अनुनयपूर्ण बातें सुन कर आर्या के मन में भय और रोमांच के भाव एक साथ उठ खड़े हुए| कहीं ऐसा तो नहीं कि यह बात उसकी अपने पिता से अंतिम बात है| ऐसी कल्पना ही उसके लिए मृत्यु सी प्रतीत हो रही थी| और अश्रुपूर्ण नेत्रों और रुँधे कंठ से वह बोली "पिताजी! आपको मुझसे विनती करने की कोई आवश्यकता नहीं है| आपकी बात मानना तो हमारा कर्तव्य है| हम आज ही आपके कहे अनुसार गाँव के लिए चले जायेंगे| और मुझे पता भी है कि कैसे जाना है, अतः आप निश्चिंत रहियेगा|" फिर उसने संयत होकर पूछा "किंतु पिताजी! हम सामान क्या क्या लेकर जाएँगे?"

पिताजी ने कहा था "बेटी! ज़्यादा आवश्यक है गाँव पहुँचना| ज़्यादा भार लेकर जाने की भी आवश्यकता नहीं है| एक दो जोड़ी कपड़े, कुछ खाने का सामान और हाँ, चारो वेदों और गीता की पुस्तकें भी ले लेना, ये पुस्तकें बुरे समय में तुम्हारा मार्गदर्शन करेंगी| और बेटी! सबसे ज़रूरी बात . . . ."

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