४. एक सुरक्षित क्षेत्र - आर्यक्षेत्र

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दोपहर का समय, गर्मी का एक महीना, २१०० ईo

सगौन के बड़े बड़े जंगल इन पर्वतीय क्षेत्रों में फैले हुए हैं| जिधर भी नज़र जाती है, बड़े बड़े पत्तों वाले सगौन के वृक्ष तथा पर्वतीय झाड़ियाँ व चट्टानें ही दृष्टिगोचर होते हैं| उपर सूर्य अग्निवर्षा कर रहा है और नीचे धरती तप रही है| एक छोटी पहाड़ी की तली में वृक्षों की छाया में लगभग तीस चालीस लोग यत्र तत्र बैठे हुए हैं| उनके मैले, फटे वस्त्रों और शुष्क चेहरों से ये पता चलता है कि ये लोग कई दिनों से यात्रा कर रहे हैं| उनके पसीने से तर चेहरों के भाव उनकी निराशा और आगे बढ़ने के प्रति उनकी उदासीनता को साफ दिखा रहे हैं|

उन्हीं में से एक व्यक्ति ने अपनी झुकी पलकों को उठाकर आकाश की ओर देखते हुए कहा "हे भगवान! इस स्वतंत्र जीवन से तो वह दासता की जिंदगी ही अच्छी थी| ओह! ये खाली पेट, ये फटे वस्त्र, ये झुलसती हुई त्वचा और एक पुत्र को खो देने का दुख|" वह व्यक्ति अत्यंत अशक्त और दुखी लग रहा है किंतु इस गर्मी में मानो अश्रुओं के लिए भी जल शेष नहीं है उसके शरीर में| वह व्यक्ति अत्यंत कठिनाई से एक चट्टान का सहारा लेकर उठा और एक दूसरे व्यक्ति के पास जाकर बोला "हे आचार्य देवव्रत! मैं उस समय को कोसता हूँ जब मैं आपसे मिला था और आपकी बातों में आकर स्वतंत्र जीवन की चाह में अपनी पत्नी और दो बच्चों के साथ भोपाल से भागा था| वह देखिए उस मेरी प्यारी पत्नी को जो हड्डियों का ढाँचा मात्र रह गयी है| मेरे उस एकमात्र बच्चे को देखिए जिसने कल शाम से पानी तक नहीं पिया है| अपनी पत्नी और बेटे को भूख और प्यास से मरते देखने से तो अच्छा है कि मैं सामने के पर्वत से गिरकर आत्महत्या ही कर लूँ|" और वह व्यक्ति वही पर दोनो हाथों से सिर पकड़कर बैठ गया|

आचार्य देवव्रत जो कि स्वयं भी दुखी हैं, सबको संबोधित करके बोले "आप लोग धीरज रखिए| हमें अपना लक्ष्य अवश्य प्राप्त होगा| अगर हम इस तरह हार मान गये तो हमारे जो प्रियजन इस प्रयास में हमसे दूर हो गये हैं, उनका बलिदान व्यर्थ हो जायेगा|"

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