१२. प्रेम और बलिदान

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नेवारी का युद्ध प्रतिज्ञा और आर्यों के सम्बन्ध का प्रारम्भ था | किंतु कुछ भी हो इस युद्ध के बाद प्रतिज्ञा मानो आर्या की सबसे घनिष्ठ और प्रिय बन गयी थी | अब तो वे अकारण ही बार बार प्रतिज्ञा की प्रिय स्थल उस पर्वत की चोटी पर मिलतीं और आर्यपुत्र, बीरकुनिया, आर्यक्षेत्र और अपने बारे में बातें करती रहतीं | कई माह बीत गये उस नेवारी वाले युद्ध को और आर्य भी अब पुनः युद्ध के विनाश से उभर कर नये जीवन का आरंभ कर रहे हैं | एक दिन वे ऐसे ही बैठी थीं उसी पर्वत की चोटी पर | दोनो बीरकुनिया की ओर मुख करके बैठी हैं और मंद मंद हवा चल रही है | सूर्यास्त हो चुका है और हवा में शीतलता विद्यमान है और उन्हें यही समय अत्यंत प्रिय है साथ बैठकर अपनी बातें करने का |

"अब तो मुखिया रामगुप्त ने तुम्हे अपनी दत्तक पुत्री बना लिया है, अब तो तुम भी एक आर्य परिवार से जुड़कर एक आर्य कहलाओगी |" आर्या ने चहकते हुए कहा |

प्रतिज्ञा ने मुँह बनाकर कहा "लेकिन इस बात को अभी अच्छे से दो सप्ताह भी नहीं हुए और उस नेवारी के मुखिया जगजीवन ने अपना विवाह प्रस्ताव भेज दिया मुखिया रामगुप्त के पास | मैं तो और भी दुविधा में फँस गयी कि अब मैं करूँ भी तो क्या | यदि मैं ना कहती हूँ तो आर्यों में वैमनस्य उत्पन्न होगा और यदि मैं कहती हूँ कि मुझे आर्यपुत्र से प्रेम है तो पता नहीं आर्यपुत्र और लोग क्या कहेंगे |"

आर्या ने प्रतिज्ञा का हाथ पकड़ के कहा "तुम फिर प्रारंभ कर दी अपनी बड़ी बड़ी बातें | चाहे कुछ भी हो जाए तुम आर्यपुत्र से दूर मत होना | तुम्हे मुझे वचन देना पड़ेगा |"

प्रतिज्ञा ने आर्या की ओर देखा और फिर चिंतित से स्वर में पूछी "मुझे ऐसा लग रहा है जैसे तुम आर्यपुत्र को मुझे सौंप कर कहीं जाने वाली हो | सच सच बताओ क्या चल रहा है तुम्हारे मन में |"

आर्या ने दुखी स्वर में कहा "हमें पता चला है कि बनारस का सुल्तान आर्य क्षेत्र में घुसने की योजना बना रहा है | यह बात हमारे गुप्तचरों और सोन नदी के उस पार व्यापार करने वालों से पता चली हैं | यदि हमने कुछ नहीं किया तो आने वाले एक दो वर्षों में हो सकता है कि ज़्यादा भयानक युद्ध हो जाए | वैसे भी आर्य क्षेत्र में बड़ी कठिनाई से जीवन यापन हो पा रहा है लोगों का किंतु एक और युद्ध के बाद तो सब कुछ समाप्त ही हो जाएगा |"

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