तक़दीर....

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क्यों आज फिर उसकी मुस्कराहट दिल को छू गयी
क्यों दिन भर दिन उसकी आदत सी होने लगी

उसका पास आना तो आज भी अच्छा लगता है
पर इस कम्भख्त समाज को उसका धर्म दीखता है

क्यों आज फिर इन जज़्बातों पर समाज का ताला लग जाता है
और ये मासूम दिल उसका होकर भी उसका न बन पता है

हर रोज़ यु ही उसे देख अपना दिल हार जाती हु
पर एक बार फिर समाज के सामने खुद को कमज़ोर पाती हु

शायद हमारी तक़दीर को यही मंज़ूर था
हमारी लकीरों में उसका नाम भले ही न हो
पर ये दिल आज भी उसका है ||

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