नज़रों का सफर..

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उन लफ़्ज़ों की बंदिशों से हटकर,
आज पहली बार तेरे इन नज़रों से गुफ्तगु हुई।
उन बातों के बीच आज एक नयी ही कहानी सुनाई पड़ी,
कुछ राज़ थे अंकहे जिनसे मैं आज तक अंजान थी,
तो कुछ सवाल जिनका जवाब शायद मै भी ढूँढ रही थी।

आखिर क्या पता था मुझे
की जिस मुस्कुराहट के पीछे मै यूही फिदा थी,
उसने न जाने कितने आँसू पिये होंगे।
तेरे जिस बचपने पर मैने अपना दिल हारा था,
उस मासूमियत के पीछे कितने राज़ कैद होंगे।
जो मेरा हमदर्द केहलता था उसके खुद के दर्द ही अंजान होंगे।
हाँ, नहीं पता था मुझे, की जो मेरे दिल के टुक्रे समेटने मे जुटा है,
उसका खुद का दिल लाखों टुक्रो मे बांटा होगा।

पर आज तेरे इन अंजान सवालों की पहेली मे
मैने अपने कुछ जवाबो से सामना कर लिया
आज इन नज़रों की गुफ्तगु के बीच रूह को रूह का नजराना भी मिल गया।
पर ये दिल्लों की दास्ताँ आज फिर लबो पर आते आते रुक गयी
और ये सफर फिर अपनी मंज़िल से मुकर गयी
पर फिर भी ये सफर जाने अंजाने ही सही मेरा सबसे खूबसूरत सफर बन गयी

और बने भी क्यों ना आखिर मंज़िल से बेहतर तो सफर ही होते है न भले मंज़िल मिले या ना मिले मंज़िल के करीब पहुँचने का लम्हा ही खास होता है।

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