चुम्मा चुम्मा दे दे!

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नलिनी की कुछ समझ में नहीं आया लेकिन वो इतना समझ गई थी कि उसे ऊपर के फ्लेट 901 में मदद जरूर मिलेगी। एक अनजान से फ्लेट में जाना खतरे से ख़ाली नहीं था लेकिन नलिनी तो पिछले कई दिनों से खतरों से ही खेल रही थी, या यूँ कहें कि खतरे उसके साथ खेल रहे थे।

वो ऊपर उसी फ्लेट के पास पहुँच गई, फ्लेट के दरवाजे पर बहुत ही धूल जमी हुई थी, जगह जगह मकड़ी के जाले लगे हुए थे। दरवाजे की हालत देखकर तो ऐसा लग रहा था कि महीनों से यह दरवाजा खोला ही नहीं गया, नलिनी की उम्मीद बुझने के कगार पर खड़ी थी। सुबोध ने देव को संभाला हुआ था, नलिनी इसी उधेड़बुन में थी कि तभी उसकी नज़र फ्लेट की नेम प्लेट पर पड़ी, दरवाजा इतना गन्दा था लेकिन नेम प्लेट एकदम साफ़ सुथरी थी।

यह बात नलिनी को हैरान कर रही थी। "नलिनी!" तभी एक आवाज सुनकर नलिनी ने पलटकर देखा, वो आवाज़ सुबोध की नहीं बल्कि देव की थी जो अभी भी पूरी तरह से होश में नहीं आया था। वो बार-बार बेहोशी में नलिनी का नाम ले रहा था, इतने सालों में पहली बार उसने अपना नाम देव के होंठों से सुना था।

उनके पास समय कम था, नलिनी ने दरवाजा खटखटाया, .......एक मिनट हो गया लेकिन कोई जवाब नहीं, ......... दूसरा मिनट भी निकल गया इस बात का इंतजार करते कि दरवाजा अब खुलेगा लेकिन था तो बस वही सन्नाटा।

अचानक उसे उस पर्ची का ध्यान आया, नलिनी ने पर्ची निकाली और फिर से दरवाजा खटखटाया। इस बार उसने उसी क्रम में खटखटाया जैसा उस कागज में लिखा था।

खालिद के गुंडे बस दो फ्लोर नीचे ही रह गए थे, धीरे धीरे वो ऊपर आ रहे थे। नीचे लोगों की चीख पुकार नलिनी के कानों तक आ रही थी लेकिन दरवाजा अभी भी बंद था। नलिनी ने घबराते हुए सुबोध की तरफ़ देखा, सुबोध भी समझ रहा था कि शायद यही उनका अंत है।

नलिनी की धड़कनें ट्रेन के इंजन की तरह भाग रही थी, मौत उसके चारों तरफ थी, उसका पति सुबोध और पहला प्यार देव दोनों उसकी आँखों के सामने अपनी मौत का इंतजार कर रहे थे। नलिनी ने अपनी आँखें बंद कर ली, सालों पहले उसने भगवान का नाम ना लेने की कसम खाई थी, आज़ उसे बचाने वाला कोई नहीं था और उसे मदद की जरूरत थी।

उसे उम्मीद तो नहीं थी लेकिन फिर भी ना जाने क्यों उसने मन-ही-मन माँ काली का ध्यान किया "माँ!..", ऐसा लग रहा था कि जैसे समय थम सा गया था, वो अथाह अँधेरे में गिरती चली जा रही थी, चारों तरफ बिजलियाँ कड़क रही थी, "माँ!..." नलिनी के मन की आवाज़ जैसे पूरे आसमान में गूँज रही थी। नलिनी के गिरने की रफ़्तार कम हो रही थी और धीरे-धीरे वो वहीं थम गई हवा के बीचों-बीच।

"नलिनी!.." अचानक उसके कानों में एक आवाज पड़ी, "नलिनी!.." सुबोध की आवाज सुनकर नलिनी की तंद्रा टूटी, उसने सुबोध की तरफ़ देखा, सुबोध ने दरवाजे की तरफ़ नीचे देखने का इशारा किया। नलिनी ने दरवाजे की तरफ़ देखा, अचानक किसी ने एक कागज का टुकड़ा दरवाजे के नीचे से बाहर सरकाया।

नलिनी ने बिना देर किए उस कागज को उठा लिया और उसे खोलकर देखा।

उसमें लिखा था "चुम्मा चुम्मा दे दे!", नलिनी को कुछ भी समझ नहीं आया कि यह क्या है। "क्या मतलब है इसका?.." नलिनी ने चुपके से सुबोध से पूछा तो सुबोध ने उसे वो कागज़ निकालने को कहा जो उसे नीचे मिला था।

नलिनी ने वो पर्चा खोला और कई दिनों के बाद पहली बार नलिनी के चेहरे पर हल्की सी मुस्कान आई।

नलिनी ने दरवाजे के पास अपना मुँह लगाया और बोली "दे दे प्यार दे!" इतना बोलकर नलिनी थोड़ा पीछे हट गई, गुंडे सीढ़ियों से उसके फ्लोर पर ही आ रहे थे, नीचे लाइट की रोशनी सीढ़ियों से ऊपर की दीवार पर पड़ रही थी, नलिनी अपनी आँखों से ऊपर आने वाले गुंडों की परछाई देख रही थी।

"नलिनी!.." सुबोध ने नलिनी को आवाज लगाई लेकिन आतंक ने नलिनी को जैसे जड़ कर दिया था वो वहीं खड़ी-खड़ी अपनी फटी आँखों से अपनी मौत को ऊपर आते देख रही थी।

"नलिनी!!.." सुबोध ने एक बार फिर से आवाज़ लगाई लेकिन नलिनी तो कुछ भी सुनने की हालत में नहीं थी, उसका दिमाग सुन्न पड़ गया था, उसकी सोचने समझने की शक्ति जैसे खत्म हो गई हो।

"नलिनी!!.." सुबोध ने आखिरी बार आवाज़ लगाई, बस अब कुछ ही सीढ़ियाँ बची थी, नलिनी और उसकी मौत के बीच।

////क्या नलिनी खुद को बचा पाएगी?
क्या उसे मदद मिलेगी?
या यही है उसके आखिरी पल।
जानने के लिए
मिलते हैं अगले भाग में/////

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