अरे आर्य, सुनो तो ये लक्ष्मण मुझको क्या बताते,
वन में मुझे अब शेष जीवन व्यतीत करने को हैं कहते,
मैंने तो मुस्कुरा के बोल दिया कि प्रभु मुझे जाने नहीं देंगे,
पर लक्ष्मण रोते हुए कहते हैं कि प्रभु के आदेश से ही वह ऐसा बोलेंगे।कृपया कर लक्ष्मण को समझाएं,
कि बिना कारण आंसुओं की झड़ी न लगाए,
लक्ष्मण का यह दुःख मुझसे देखा नहीं जा रहा,
बहुत समझाने के बाद भी लक्ष्मण समझ नहीं पा रहा।सीता तो मुरझाई सी बैठी थी श्रीराम के चरणों में,
फिर श्रीराम कुछ कहते हैं, उन उलझे अक्षरों में,
"हे सीता, मैं केवल एक प्रजा का सेवक हूँ, मेरा कार्य मुझे प्रजा ही बताती है,
और प्रजा तुम्हारी पवित्रता पर अनेक प्रश्न उठाती है।"सीता, आंसुओं को अपनी साड़ी से पोंछ,
शत्रानी सा रूप, मुख पर ठोक,
"आर्यपुत्र, ये लोक समाज के प्रश्नों को औरत ही क्यों सहे,
मैंने अग्नि परीक्षा भी दी, फिर भी मेरे चरित्र पर ही सबके तीर चले।"राम बोले, "देखो प्रिया, ये समाज की रीति है,"
सीता बीच में ही बोल पड़ी, "ये रीति नहीं त्रुटि है,
समाज के लिए सही है कि समाज की त्रुटि को हटाया जाए,
गलत और सही को विवेक से निर्णय लेकर ही बताया जाए।"मुझे नहीं इस महल का लोभ है,
और नहीं मुझे, साम्राज्य की रानी होने का कोई रोब है,
ऐसा नहीं कि मुझे ये ऐश्वर्य, आराम को त्यागने में कोई आपत्ति हो,
बस मुझे ये स्वीकार्य नहीं, कि मैं समाज की किसी तुच्छ त्रुटि से कष्टित हो।इसलिए मुझे आज्ञा दे कि मैं अपने स्वाभिमान के लिए ये सब त्याग सकूं,
और अब मैं इस तुच्छ समाज से दूर शांति पूर्ण रह सकूं,
हे आर्यपुत्र, ये मेरे आपके साथ कुछ अंतिम पल रहे,
और राम अपनी और अपनी कुटुंब मर्यादा के साथ सीता को अंतिम छोर तक जाते देखते रहे...