रूपवान का अहंकार: २

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हिमा २ घंटों से सोने का प्रयास कर रही थी। परंतु निद्रा उसकी अंतरात्मा तक को छोड़ कर जा चुकी थी। हिमा समझ गई कि अब उसे निद्रा नहीं आने वाली है, इसलिए वह उठ खड़ी हुई, और फिर से नियम का उल्लंघन करते हुए, सूर्योदय से पूर्व ही, बिना किसी सेवक या पहरेदार की ही अपने कक्ष से बाहर, पहरेदारों से बचते बचते निकल गई, और महल में घूमने लगी।

"हम रानी हैं। हमें क्या ही दंड देंगे महाराज, हमें उनका कोई भय नहीं है।" हिमा अपने आप में ही गर्व के साथ बड़बड़ाने लगी। "एक तो हमें महल में आए यह तीसरा दिन है, परंतु कदाचित महाराज की भी स्मृति चली गई है। एक बार भी हमसे मिलने नहीं आए!!!" हिमा क्रोधित होकर अपने आप से ही कहने लगी।

फिर से हिमा, रानी रहनस्थल के बाहर निकल गई और महल के उसी तलाब के पास पहुंच गई, जहां वह पहली रात को पहुंची थी। वहां तलाब के पास बैठने के लिए, ४ कुर्सियां, सजा कर रखी हुई थीं, जिसपर बैठकर , राजकीय लोग , यहां वहां की, या किसी कार्य के बारे में बाते कर सकते हैं। हिमा उन कुर्सियों में एक एक कुर्सी पर जा कर बैठ गई, जो कुर्सी उस तलाब की ओर मुंह किए हुए रखा हुआ था।

हिमा निराशा में बैठ गई , और तलब को घूरने लगी। अकस्मात, उसके पीछे से किसी के कुछ कहने की आवाज आई,"आपने फिर से नियमों का उल्लंघन किया है......छोटी रानी जी???"

हिमा ने इस परिचित स्वर को सुनकर , कुर्सी पकड़ कर पीछे की ओर देखा। पीछे वही रूपवान व्यक्ति, हाथों में २ प्याली शरबत , एक थाली में लिए खड़ा था, वही व्यक्ति जिसने हिमा के स्वप्न में हिमा की गर्दन पर तलवार रखी थी। हिमा उसे देख कर डर के मारे उठ खड़ी हुई। उसके ऐसा करने से, वह जिस कुर्सी पर बैठी थी, वह कुर्सी उस रूपवान व्यक्ति के पैरों पर जा गिरी।

वह रूपवान व्यक्ति जोर से चिल्लाने वाला था परंतु रात्रि में महल की शांति को भंग न करने लिए और हाथ में पकड़े शरबत के प्याले हाथ से गिर न जाएँ , इसलिए उसने अपनी पीड़ा को काबू किया, गहरी सासें लेने लगा और केवल अपने पैर को कुर्सी के नीचे से बाहर निकल लिया।

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