मैंने इस कविता को 'अनुप्रास अलंकार' से संवारा है।
जिसमे ऊष्म (संघर्षी) 'स' वर्ण की आवृत्ति हुई है।सर्व सुसम्पन्न, सुगम स्वसाधन,
संस्कृति समरसता की पहचान हो।सौभाग्य सुशोभित हो रहा,
सौम्य सरस्वती का आह्वान हो।साकार सपने समस्त हो अपने,
सबल समृद्धि का सैलाब हो।सहज सरलता की आस लिए हम,
सतत संभव का प्रयास हो।सच सचेत का विश्वास भर जो,
स्वयं सक्षम का आगाज हो।सार्थक सामर्थ्य भरा ये जीवन सारा,
सद्भावना सहानुभूति का भाव हो।सदवृत्ति सदैव बनी रहे निरंतर,
सार संग्रह का मान हो।सुंदर सजीले जो उतरे मन में,
सदा संयोग भर सम्मान हो।सत्य संकल्प की जो लगन करे,
समक्ष सम्मुख का व्याख्यान हो।स्वाभिमान सम्मोहन जन जन में,
संगीत साहित्य से कल्याण हो।- प्रियंक खरे 'सोज़'
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