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इश्क़ -ए-हुकूमत बया करते जो।
शर्म ए लिबास की परवाह न होती
जमाने मे जो लगता सही उन्हें ।
कह गुजर जाने की बस आस होती
हर एक लफ्ज में जो नाम उनका
दीदार करना बेहिसाब होता ।।
तरसते नैन भरे जो अश्क मेरे
नुमाइशो से भरा ये बाजार होता ।
"सोज" की साफगोई दिखावा नही
साजिशें तमाम यहाँ नाकाम होती
बन्दिशों की दबिश न होती मुझ पर ।
तम्मनाओं से भरी हरएक रात होती✍प्रियंक खरे "सोज"